SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम परिच्छेद 481 अथ मोक्षतत्त्व लिखते हैं / तहां प्रथम मोक्ष का स्वरूप कहते हैं / यदुक्तं:जीवस्य कृत्स्नकर्मक्षयेण यत्स्वरूपावस्थानं तन्मोक्ष उच्यते / भावार्थ-जीव के सम्पूर्ण ज्ञानावरणादि कर्मो के क्षय होने करके जो स्वरूप में रहना है, उस को मोक्षतत्त्व का मोक्ष कहते हैं। वह मोक्ष जीव का धर्म है। स्वरूप तथा धर्म धर्मी का कथंचित् अभेद होने से धर्मी जो सिद्ध, तिन की जो प्ररूपणा, सो भी मोक्ष प्ररूपणा है / क्योंकि मोक्ष जो है, सो जीव पर्याय है, सो जीव पर्याय कथचित सिद्ध जीव से अभिन्न है / जीव की पर्याय जीव से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती है / तदुक्तंः द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः / क कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा // [सं० त०, कां० 1 गा० 12 की प्रतिच्छाया ] - भावार्थः-पर्यायों करके रहित द्रव्य अरु द्रव्य से वर्जितरहित पर्याय किसी जगे, किसी अवसर में, किसी प्रमाण से, किसी ने, कोई रूप से देखा है ? [अर्थात् नहीं देखा। ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy