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________________ 480 - जैनतत्त्वादर्श धर्म ऐसे होता है / 6. प्रत्याख्यानी यह काम हम नहीं करेंगे। 7. इच्छानुलोम-यथासुखं / 8. अनभिगृहीता-मुझ को खबर नहीं / 6. अभिगृहोता, मुझे खबर है / 10. संशय-क्यों कर खबर नहीं है ? 11. प्रगट अर्थ कहे / 12. अप्रगट अर्थ कहें। काय योग के सात भेद हैं / प्रथम काया योग का स्वरूप कहते हैं। प्रात्मा का निवासभूत, पुद्गलद्रव्य घटित विषम स्थल में बूढे दुर्वल को अवष्टभभूत लाठी आदि की तरें जिसके योग से जोव के वीर्य का परिणाम-सामर्थ्य प्रकट हो सो काया योग है / जैसे अग्नि के संयोग से घटकी रक्तता होती है, तैमे ही आत्मा में काया के सम्बन्ध से वीर्य परिणाम है / इस काययोग के सात भेद हैं / 1. औदारिककाययोग, 2. औदारिकमिश्रकाययोग, 3. वैक्रियकाययोग, 4 वैक्रियमिश्रकाययोग 5. प्राहारककाययोग, 6. आहारकमिश्रकाययोग, 7 फार्मणकाययोग / उसमें से प्रथम के दो काययोग तो मनुष्य अरु तिर्यंच में होते हैं / अगले दो स्वर्गवासी देवताओं में होते हैं / अरु अगले दो चौदहपूर्वपाठी साधु में होते हैं / तथा जीव जव काल करके परभव में जाता है, तब रस्ते में कार्मण शरीर साथ होता है / तथा समुद्घात अवस्था में .केवली में होता है / अरु जो आहार पाचन करने में समर्थ तैजस शरीर है, सो कार्मण योग के अन्तर्भूत होने से पृथग् ग्रहण,नहीं किया है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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