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________________ 476 जैनतत्त्वादर्श व्यपदेशको प्राप्त होता है / अरु उपचार से द्रव्यमन भी ज्ञायक है / मनमें जो सत्य व्यवहार का धारण करना, सो सत्यमन / सो व्यवहार यह है, कि पाप से निवृत्त होना वचन के उच्चारण किये बिना जो चिन्तवन करना कि यह मुनि है, जीवादि पदार्थ सत् हैं, इत्यादि / मन शब्द करके यहां से मनोयोग अर्थात् जो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ, जो मनोज्ञान, उस करके परिणत प्रात्मा को वलाधान करने वाला, मनोवर्गणा के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ वीर्य विशेष, सो यहां मनोयोग जानना / इसी मन के चार भेद हैं / ऐसे ही वचन योग, सो वचन की वर्गणा अर्थात् परमाणु का समूह, उस वचन वर्गणा करके उत्पन्न भई सामर्थ्य विशेष-प्रात्मा की परिणति, सो वचनयोग जानना / मन के चार भेदों में से सत्यमनोयोग का स्वरूप ऊपर लिख पाये हैं, सो प्रथम भेद / दूसरा मृषामन, सो धर्म नहीं, पाप नहीं, नरक स्वर्ग कुछ नहीं, इत्यादिक जो वचन निरपेक्ष चिन्तवना करनी, सो जानना / तीसरा मिश्रमन, सो सच्च अरु झूठ, इन दोनों का चिन्तन करना, जैसे गोवर्ग को देख कर मन में चिन्तन करना कि यह सर्व गौमां हैं। यह मिश्र इस वास्ते है, कि उस गोवर्ग में वैल भी हैं / इत्यादि मिश्रवचन | चौथा "हे ! ग्राम गच्छ" इत्यादि चिन्तन करना, सो व्यवहारमन / इसी तरह जब वचन योग से पूर्वोक्त वारों का उच्चारण करे, तव वचन योग भी चार प्रकार का,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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