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________________ पंचम परिच्छेद 475 क्रोध, मान, माया, अरु लोभ, ऐसे ही अप्रत्याख्यान क्रोधादि चार, तथा प्रत्याख्यान क्रोधादि चार, अरु संज्वलन क्रोधादि चार, एवं सोलह कषाय हैं / इनके सहचारी नव नोकषाय हैं / यथा-१. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. शोक, 5 भय, 6. जुगुप्सा , 7. स्त्री वेद, 8 पुरुष वेद, 6. नपुंसकवेद / इन सयका व्याख्यान पीछे कर आये हैं। इन से कर्म का वन्ध होता है, और यही संसार स्थिति के मूल कारण हैं / यह तीसरा वन्ध हेतु कहा है। चौथा योगनामा बन्ध का हेतु है / सो योग मन, वचन, अरु काया भेद से तीन प्रकार का है / इन तीनों के पन्दरां भेद हैं / तहां प्रथम मनोयोग चार प्रकार का है, और वचन योग भी चार प्रकार का है, अरु काययोग सात प्रकार का है, ये सब मिलकर पन्दरां भेद हैं। __ मन नाम अन्तःकरण का है। उसके चार प्रकार यह हैं / 1. सत्यमनोयोग, 2. असत्यमनोयोग, 3. मिश्रमनोयोग, 4. व्यवहारमनोयोग / मन भी द्रव्य और भाव योगके भेद प्रभेद भेद से दो प्रकार का है। काया के व्यापार से पुद्गलों का ग्रहण करके उन को जब मनोयोग से काढ़ता है, तिस का नाम द्रव्यमन कहते हैं / अरु उन पुद्गलों के संयोग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, तिसका नाम भावमन है / उस ज्ञान करके जो व्यवहार सिद्ध होता है, तिस व्यवहार करके मन भी सत्यादि
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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