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________________ 474 जैनतत्त्वादर्श होवे, अपने मनःकल्पित का उपदेश देवे, सूत्र का सच्चा अर्थ तोड़े, ऐसे लिंगी, उत्सूत्र के प्ररूपक को गुरु जान कर मान, सन्मान करे / तथा जो गुणी, तपस्वी, प्राचारी और क्रियावंत साधु है, तिसकी इस लौकिक इच्छा करके सेवा करे, बहुत मान करे, मन में ऐसे जाने, कि यदि मै इनकी सेवा करूंगा, तो इनकी मेहरबानगी से धन, बुद्धि, स्त्री, पुत्रादि मुझको अधिक प्रमाण में मिलेंगे। 6. लोकोत्तरपर्वगत मिथ्यात्व-सो प्रभु के पांच कल्याणक की तिथि तथा दूसरे पर्व के दिन, इन दिनों में धनादि के वास्ते जप, तप, आदि धर्म करनी करे, सो लोकोत्तरपर्वगत मिथ्यात्व है / इत्यादि मिथ्यात्व के अनेक विकल्प हैं, परन्तु वो सब पूर्वोक्त अभिग्रहादि मिथ्यात्व के भेदों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं / यह वन्ध का प्रथम हेतु है। अब वारह प्रकार की अविरति कहते हैं-पांच इन्द्रिय छठा मन, अरु छ काय, यह बारह प्रकार हैं / तिनका स्वरूप इस तरह से है। पांचों इन्द्रियों को अपने 2 विषय में प्रवृत्त करे, सो पांच अवत, अरु छठा किसी पाप प्रवृत्ति से मन का निरोध न करना सो छठा अव्रत है / तथा षड् विध जीव निकाय की हिंसा में प्रवृत्त होवे / यह बारह प्रकार प्रविरति के हैं / यह दूसरा बन्ध हेतु है। तीसरा वन्ध का हेतु कपाय है / उसके सोला कषाय, नव नोकषाय कुल मिलकर पच्चीस भेद हैं / अनंतानुबन्धो
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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