________________ 470 जैनतत्त्वादर्श सौ नय, चार निक्षेप-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तथा 1. उत्सर्ग, 2. अपवाद, 3. उत्सर्गापवाद, 4. अपवादोत्सर्ग, 5. उत्सर्गोत्सर्ग, 6. अपवादापवाद, यह षड्भङ्गी तथा विधिवाद, चारित्रानुवाद, यथास्थितवाद, इत्यादि अनन्तनयों की अपेक्षा से जैन मत के शास्त्रों का कथन है / अतः जब तक जिस अपेक्षा से शास्त्रों में कथन है वो अपेक्षा न समझे, तब तक जैन शास्त्रों का यथार्थ अर्थ समझना कठिन है / इन के समझने के वास्ते बड़ी निर्मल बुद्धि चाहिये / सो तो बहुत थोड़े जीवों को होती है / तथा शास्त्र के अर्थ-अभिप्राय को बताने वाला गुरु भी पूरा चाहिये, परन्तु सो भी नहीं है / इत्यादि निमित्तों से संशय मिथ्यात्व होता है। 5. अनाभोग मिथ्यात्व-जिन जीवों को उपयोग नहीं ऐसे जो विकलेंद्रियादि जीव, तिन को अनाभोग मिथ्यात्व होता है। उपयोग के प्रभाव से वे जीव यह नहीं जान सकते कि धर्माधर्म क्या वस्तु है / यह मिथ्यात्व के पांच भेद हैं। इस पांच प्रकार के मिथ्यात्व के और भी अनेक भेद हैं, जो कि इन पांचों के ही अन्तर्भूत हैं, सो भेद इस प्रकार से हैं:-१. प्ररूपणा मिथ्यात्व-जिनवाणी रूप जो सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, इन से विपरीत प्ररूपणा करनी / 2. प्रवर्त्तना मिथ्यात्व-जो काम मिथ्यादृष्टि जीव धर्म जान कर करते हैं, उन की देखा देखी आप भी वैसे