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________________ पंचम परिच्छेद 466 माने / ऐसा जीव अतिपापो अरु बहुल संसारो होता है। 'यह मिथ्यात्व प्रायः जो जैन-जैनमत को विपरीत कथन करता है उस में होता है / जैसे गोष्ठमाहिलादिक हुए हैं। यह बात श्री अभय देवसूरि नवांगीवृत्तिकार नवतत्त्वप्रकरण के भाग्य में कहते हैं: * गोट्ठामाहिलमाईणं, जं अभिनिविसि तु तयं // आदि शब्द से चोटिक शिवभूति में आभिनिवेशिक मिथ्यात्व जानना। 4. संशय मिथ्यात्व-सो जिनोक्त तत्त्व में शंका करनी। क्या यह जीव असंख्य प्रदेशी है ? वा नहीं है ? इस तरें सर्व पदार्थों में शंका करनी, तिस में जो उत्पन्न होवे, सो सांशयिक मिथ्यात्व है / / तदाह “भाष्यकृत्-सांशयिकं मिथ्यात्वं तदिति शेषः / शंका-संदेहो जिनोक्ततत्त्वेष्विति” संशय मिथ्यात्व के होने के कारण श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ध्यानशतक में लिखते हैं, कि एक तो जैनमत स्याद्वारूप अनंतनयात्मक है, इस वास्ते समझना कठिन है / तथा सप्तभंगी के सकलादेशी, विकलादेशी भंगों का स्वरूप, अष्टपक्ष, सात * गाथा का पूर्वार्ध इस प्रकार है:आभिग्गहिय किल दिक्खियाण अणभिग्गहियं तु इअराण / + यह नव-तत्वभाष्य टीका का पाठ है टीका कर्ता यशोदेव उपाध्याय हैं।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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