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________________ जैनतत्त्वादर्श 1. अभिग्रह मिथ्यात्व-जो जीव ऐसा जानता है, कि जो कुछ मैने समझा है, सो सत्य है, औरों की मिथ्यात्व के समझ ठीक नहीं है / तथा सच झूठ की भेद प्रभेद परीक्षा करने का भी उस का मन नहीं है, सच झूठ का विचार भी नहीं करता, यह अभिग्रह मिथ्यात्व / यह मिथ्यात्व, दोक्षित शाक्यादिअन्यमत ममत्व धारियों को होता है / वो अपने मन में ऐसे जानते हैं, कि जो मत हमने अंगीकार किया है, वो सत्य है, और सर्व मत झूठे हैं। 2. अनभिग्रह मिथ्यात्व-सर्व मतों को अच्छा मानना, सर्व मतों से मोक्ष है, ऐसा जानकर किसी को बुरा न कहना, सर्व को नमस्कार करना / यह मिथ्यात्व जिनों ने किसी भी दर्शन को ग्रहण नहीं करा, ऐसे जो गोपाल वालकांदि, उन में है, क्योंकि यह अमृत अरु विष को एक सरखा जानने वाले हैं। 3. अभिनिवेश मिथ्यात्व-सो जान बूझ कर झूठ बोलना और उस के वास्ते आग्रह करना है / जैसे कोई पुरुष प्रथम तो अज्ञान से किसी शास्त्र के अर्थ को भूल गया, पीछे जब कोई विद्वान कहे कि तुम इस बात में भूलते हो, तव झूठे मत का कदाग्रह ग्रहण करे और जात्यादि के अभिमान से कहना न माने, उलटा स्वकपोलकल्पित कुयुक्तियों से अपने मनमाने मत को सिद्ध करे, वाद में हार जावे, तो भी न
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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