________________ पंचम परिच्छेद 467 कोटी सागरोपम तक रहकर फल दे करके चली जातो है / यह दूसरा स्थितिबंध / 3. जैसे किसी लड्डु में कसैला रस, किसी में कडुवा और किसी में मीठा, ऐसे ही कर्मो में रस है अर्थात किसी में दुःख रूप और किसी में सुख रूप है / जो जो अवस्था जीव की संसार में होती है, सो सर्व कर्म के अनुभाग से होती है। यह तीसरा अनुभाग बंध / 4. जैसे लड्डु के तोल, मान में, कोई लड्डु एक तोला और कोई छटांकादि का होता है, ऐसे ही कर्म प्रदेशों की गिनती भी किसी कर्म में थोड़ी, किसी में अधिक होती है, यह चौथा प्रदेश बंध है / यह दृष्टांत कर्म ग्रंथ में है। * अथ बंध के हेतु लिखते हैं / 1. मिथ्यात्व-तत्त्वार्थ में श्रद्धान रहित होना / 2. अविरतिपना-पापों से बन्ध के हेतु निवृत्त होने के परिणाम से रहित होना / 3. कपाय-कष नाम है संसार का, तथा कर्म का, तिस का जो प्राय-लाभ सो कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ रूप / 4. योग-मन, वचन, काया का व्यापार / यह चारों बंध के मूलहेतु हैं। उत्तर हेतु सत्तावन हैं, सो लिखते हैं / उस में प्रथम मिथ्यात्व, पांच प्रकार का है-१. अभिग्रह मिथ्यात्व 2. अनभिग्रह मिथ्यात्व, 3. अभिनिवेश मिथ्यात्व, 4. संशयमिथ्यात्व, 5. अनाभोग मिथ्यात्व / * प्रथम कर्म ग्रन्थ गाथा 2 //