________________ 466 जैनतत्त्वादर्श कहाता है सो गोत्र कर्म / 8. अन्तर कहिये विचाले-मध्य में लाभादि के जो हो जावे, एतावता जीव में दान लाभादिक होते को भी न होने देवे, सो अन्तराय / यह आठ स्वभावरूप कर्म जो जीव के साथ क्षीर नीर की तरे मिथ्यात्वादि हेतुओं से बंध जावे, तिस का नाम प्रकृतिवन्ध है / 2. इनहीं आठ प्रकृतियों की स्थिति अर्थात् काल मर्यादा, जैसे कि यह प्रकृति इतना काल तक आत्मा के साथ रहेगी, जिस करके ऐसी स्थिति होवे, सो स्थिति बंध / 3 इनही-आठ प्रकतियों में रस का तीव्र, मंद होना अनुभागवन्ध / 4. कर्मप्रदेश का जो प्रमाण, यथा-इतने परमाणु इस प्रकृति में हैं। उन परमाणुओं का जो आत्मा के साथ बंध सो प्रदेशबंध / इस तरे यह चार प्रकार कर्मवन्ध के कहे हैं, अव भव्य जीवों के वोध के वास्ते इस चार प्रकार के वन्ध में दिया गया लड्ड को दृष्टांत लिखते हैं / औषधियों से बना हुआएकलड्डु है तिसका स्वभाव वात के हरने का, वा पित्त के हरने का अथवा कफ हरने का होता है। ऐसे ही कर्मों की प्रकृतियों में किसी प्रकृति का ज्ञान को प्रावरण करने का स्वभाव, किसी प्रकृति का दर्शन को प्रावरण करने का स्वभाव होता है, सो पहला प्रकृतिबंध है / 2. कोई लड्ड एक दिन रह के बिगड़ जाता है, कोई दो दिन, चार दिन तथा कोई एक पक्ष या एक मास तक रहकर पीछे से बिगड़ जाता है। ऐसे ही कर्म की स्थिति भी एक घड़ी, पहर, दिन, पक्ष, मास, यावत् सत्तर कोटा