________________ 465 पंचम परिच्छेद उत्तर:-कर्म जो अनादि कहे हैं, सो प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं, इस वास्ते उन का क्षय हो जाता है। प्रश्न:-यह जो तुम बंध कहते हो, सो निर्हेतुक है ? अथवा सहेतुक है ? जे कर कहो कि निर्हेतुक है, तब तो नित्य सत्त्व अथवा नित्य असत्त्व होवेगा / क्योंकि जिस वस्तु का हेतु नहीं, वो आकाशवत् नित्य सत् होती है, अथवा खरभंगवत् नित्य असत् होती है / तव तो निर्हेतुक होने से मोक्ष का अभाव ही हो जावेगा। जेकर कहो कि सहेतुक है, तो हम को बताओ कि इस बंध का क्या हेतु है ? उत्तरः-इस वंध के मूल हेतु तो चार हैं, और उत्तर हेतु सत्तावन हैं। यहां प्रथम चार प्रकार का बंध कहते हैं। तिस में प्रथम प्रकृति बंध है / प्रकृति कौन सी है? अरु उस का बंध क्या है ? सो कहते हैं। तहां मूल प्रकृति आठ हैं, उस में 1. मत्यादि ज्ञान का जो आवरण-आच्छादन, सो ज्ञानावरण / 2. सामान्य बोधक चक्षु आदि का जो आवरण सो दर्शनावरण / 3. सुख दुःखादि का वेद-भोग जिस से हो, सो वेदनीय / 4. मोह से जीव विचित्रता को प्राप्त करे, सो मोहनीय / 5. “एति याति चेत्यायुः" जो चलती गुज़रती है सो आयु / जिस के उदय से जीव जीता है सो आयु / 6. वे जो शुभाशुभ गत्यादि रूप से आत्मा को नमावे सो नाम कर्म / 7. गोत्र शब्द की व्युत्पति ऐसे है “गां वाचं त्रायत इति गोत्रं" जिस के उदय से जीव ऊंच नीच कुल का