________________ 460 जैनतत्त्वादर्श काल की तप्त से यदि दुर्गध तथा उद्वेग उत्पन्न हो, तो भी स्नानादि से शरीर की विभूषा साधु न करे / यह मलपरिषह है / 16. सत्कारपरिषह, भक्त लोगों ने वस्त्रानपानादि करके साधु का बहुत सत्कार भी किया हो, तो भी मन में अभिमान नहीं करना, तथा और 2 साधुओं की भक्त लोग पूजा भक्ति करते हैं, परन्तु जैनमत के साधु की कोई बात भी नहीं पूछना, ऐसे विचार कर भी मन में विषाद न करे। यह सत्कारपरिषह है। 20. प्रज्ञापरिषह, बहुत बुद्धि पाकर अभिमान न करे, तथा अल्पबुद्धि होवे तो "मैं महा मूर्ख हूं, सर्व के पराभव का स्थान हूं" ऐसे संताप दीनता मन में नहीं लावे, सो प्रज्ञापरिषह [ ज्ञानपरिवह ] 21. अज्ञानपरिषह चौदहपूर्वपाठी, एकादशांगपाठी, तथा उपांग, छेद, प्रकरण, शास्त्रों का पाठी, ज्ञान का समुद्र मै हूं, ऐसा गर्व न करे / अथवा मैं आगम के ज्ञान से रहित हूं, धिक्कार है मुझ निरक्षर कुक्षिभर को ! ऐसी दीनता भी न करे / किन्तु ऐसे विचारे कि केवल ज्ञानावरण के क्षयोपशम के उदय से मेरा यह स्वरूप है, स्वकृतकर्म का फल है, या तो यह भोगने से दूर होवेगा, या तपोनुष्ठान से दूर होवेगा। ऐसे विचार कर अज्ञान परिषह को सहे / 22. शास्त्रों में देवता अरु इन्द्र सुनते हैं, परन्तु सान्निध्य कोई भी नहीं करता, इस वास्ते क्या जाने देवता, इन्द्र है ? वा नहीं ? तथा मतांतर की ऋद्धि वृद्धि को देख कर जिनोक्त तत्त्व में संमोह करना, इस प्रकार