________________ पंचम परिच्छेद करना युक्त नहीं, क्योंकि इसका फल यह स्वयं भोगेगा। ऐसे चिन्तन करके आक्रोशपरिषह को सहे / 13. वधपरिषह, हाथ आदि करके ताडना करना-मारना, तिसका सहन करना वध परिषह है / सो इस रीति से कि यह जो मेरा शरीर है, सो अवश्य विध्वंस होवेगा, तथा इस शरीर के सम्बन्ध से मेरे को जो दु ख होता है, सो मेरे करे हुए कर्म का फल है / इस वुद्धि से वध परिषह को सहे / 14. याचना नाम मांगने का है, तथा सर्वही वस्त्र अन्नादिक साधुओं को मांगने से ही मिलता है / इस वुद्धि से याचना परिषह को सहे / 15. साधु को किसी वस्तु की इच्छा है, अरु वो वस्तु गृहस्थ के घर में भी बहुत है, साधु मांगने को गया, परन्तु गृहस्थ देता नहीं, तव साधु मन में विषाद न करे, अरु देने वाले का बुरा भी न चितवे, दुर्वचन भी न बोले, समता करे, आज नहीं मिला, तो फलको मिल जायगा, इस तरह अलाभपरिषह को सहे / 16. रोग-घर अतिसारादि जब हो जावे, तव गच्छ के वाहर जो साधु होवे, सो तो कोई भी औषधि न खावे, अरु जो गच्छवासी साधु होवे, सो गुरु लाघवता का विचार करके रोग परिषह को सहे / तथा जो रीति शास्त्र में औषध ग्रहण करनेकी कही है, तिस रीति से करे / 17. तृणस्पर्श परिषह, दर्भादिक कठोर तृण का स्पर्श सहे / 18. मलपरिषह, साधु के शरीर में पसीना आने से रजका पुंज शरीर में लगने से कठिन मैल लग जाता है, अरु- उष्ण