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________________ 458 जैनतत्त्वादर्श ___7. अरतिपरिषह, संयम पालने में जो अरति उत्पन्न होवे, तिसको सहे / इसके सहने का उपाय दशवकालिक की प्रथम चूलिका में अठारह वस्तु का चिन्तन रूप है। अर्थात् उसके करने से अरति दूर हो जाती है / 8. स्त्री परिषह, स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यङ्ग, संस्थान, सुरति, हसना, मनोहरता और विभ्र. मादि चेष्टानों का मन में चिन्तवन न करे, तथा स्त्रियों को मोक्ष मार्ग में अर्गलसमान जान कर उनको कामकी बुद्धि करके नेत्रों से न देखे / 6. चर्या नाम चलने का है, चलना अर्थात घर से रहित ग्राम नगरादि में ममत्व रहित मास कल्पादि करना, सो चर्यापरिषह है / 10. निषद्यापरिषह, निषद्या रहने के स्थान का नाम है, सो जो स्थान स्त्री, पंडक विवर्जित होवे, तिस स्थान में रहते हुए को यदि इष्टानिष्ट उपसर्ग होवे, तो भी अपने चित्त में चलायमान न होवे, सो निषद्यापरिषह 11. 'शेरते'-शयन करिये जिसमें, सो शय्यासंस्तारक सोने का प्रासन,सो कोमल,कठिन,ऊंचा, नीचा या धूल,कूड़ा, कंकरवाली जगह में होवे, तथा वोस्थान शीत गर्मी वाला होवे, तो भी मन में उद्वेग न करे, किन्तु दुःख सहन करे, सो शय्यापरिषह / 12. प्राक्रोश परिषह, यदि कोई अनिष्ट वचन कहे, तव ऐसे विचारे, कि जेकर वह पुरुष सच्ची वात के वास्ते अनिष्ट वचन कहता है, तो मुझको कोप करना ठीक नहीं, क्योंकि यह पुरुष मुझे शिक्षा देता है / और जे कर इस पुरुष का मेरे पर झूठा प्रारोप है, तो भी- मुझको कोप
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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