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________________ चतुर्थ परिच्छेद शब्देत्तरत्वे युगपद्भिन्नदेशेषु यष्टृषु । नसा प्रयाति सांनिध्यं मूर्त्तत्वादस्मदादिवत् ॥ ३७५ तथा जिस वस्तु की आहुति देवताओं को देते हैं, वो तो अग्नि में भस्मीभूत हो जाती है। तो फिर देवता क्या उस भस्म अर्थात् राख को खाते हैं ? इस वास्ते तुमारा यह कहना प्रलापमात्र है । तथा एक और भी बात है, कि यह जो त्रेताग्नि है, सो तेतीस कोटि देवताओं का मुख हैं, "अग्नि मुखा वै देवा" इति श्रुतेः । तब तो उत्तम, मध्यम, अधम, सर्व प्रकार के देवता एक ही मुख से खाने वाले सिद्ध हुए, और सब आपस में 'जूठ खाने वाले वन गये । तव तो वे तुरकों से भी अधिक हो गए। क्योंकि तुरक भी एक पात्र में एकठे तो खाते हैं, परन्तु सब एक मुख से नहीं खाते । तथा एक और भी बात है, एक शरीर में अनेक मुख हैं, यह बात तो हम सुनते थे, परन्तु अनेक शरीरों का एक मुख, यह तो बड़ा ही आश्चर्य है 1 के धारण करने वाले हों, तो जैसे हम लोग एक समय में बहुत से स्थानों पर नहीं जा सकते, उसी प्रकार देवता भी एक साथ अनेक यज्ञस्थानों मे नही जा सकेंगे । * त्रेताग्नि — दक्षिण, आहवनीय और गार्हपत्य, ये तीन अग्नि । $ [आख० गृ० सू० अ० ४. कं ८ सू० ६ ] 'अग्निमुखा वै देवा , पाणिमुखाः पितर' इति ब्राह्मणम् । >
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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