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जैनतत्त्वादर्श ___अरु जो यज्ञ करने वालों की पूजनीयता के विषय में कहा है, वो भी अयुक्त है। क्योंकि अबुध जन ही उन को पूजते हैं, विवेकी, और बुद्विमान नहीं । अरु मूखों का जो पूजन है, सो प्रामाणिक नहिं, क्योंकि मूर्ख तो कुत्ते और गधे को भी पूजते हैं। ___ तथा जो तुमने कहा था कि देवता, अतिथि और पित की प्रीति का संपादक होने से वेदविहित हिंसा दोषावह नहीं । सो यह भी झूठ है, क्योंकि देवताओं को तो उन के सकल्प मात्र से ही अभिमत आहार के रस का स्वाद प्राप्त हो जाता है। तथा देवताओं का शरीर वैक्रियरूप है । सो तुमारी जुगुप्सित पशुमांसादि की आहुति के लेने को उन की इच्छा ही नहीं हो सकती है । क्योंकि औदारिक शरीर वाले ही इन मांसादिकों के ग्राहक हैं। जेकर देवताओं को भी कवल आहारी-अग्नि में आहुति रूप से दिये हुए द्रव्य का भक्षक मानोगे, तव तो देवताओं का शरीर जो तुमने मंत्रमय माना है, तिस के साथ विरोध होवेगा । अरु अभ्युपगम की बाधा होगी। देवताओं का मंत्रमय शरीर होना तुमारे मत में सिद्ध ही है, *"चतुर्थ्यन्तं पदमेव देवता" इति जैमिनीयवचनप्रामाण्यात् । तथा च मृगेंद्रः
* सम्प्रदान विभक्ति वाला पद ही देवता है।
+ मृगेन्द्र नाम का विद्वान् भी कहता है, कि यदि देवता लोग मन्त्रमय शरीर के धारक न होकर हम लोगों की भांति मृत शरीर