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जैनतत्त्वादर्श
जब सर्व देवताओं का एक ही मुख माना, तो जब किसी पुरुष ने एक देवता की पूजादि से आराधना की, अरु अन्य देवता की निंदादि से विराधना की । तब तो एक मुख करके युगपत् अनुग्रह और निग्रह वाक्य के उच्चारण में संकरता कां अवश्य प्रसंग होवेगा । तथा एक और भी वात है कि, मुखं जो है सो देह का नवमा भाग है । तो जब उनं देवताओं का मुख ही दाहात्मक है, तब एक एक देवता का शरीर दाहात्मक होने से तीनों भेवन ही भस्मीभूत हो जाने चाहिये ।
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तथा जो कारीरी यश के अनुष्ठान से वृष्टि के होने में, आहुति से प्रसन्न हुए देवता का अनुग्रह कहते हों, सो भी अनैकांतिक है । क्योंकि किसी जगे पर उक्त यज्ञ के अनुष्ठान से भी वृष्टि नहीं होती । अरु जहां व्यभिचार नहीं अर्थात् वृष्टिं होती भी है, तहां भी आहुति के भोजन करने से अनुग्रह नहीं, किन्तु वह देवताविशेष अतिशय ज्ञानी है, इस वास्ते अवधिज्ञान से अपने उद्देश से किये गये पूजा के उपचार को देखकर अपने स्थान में बैठा हुआ ही पूजा करने वाले के प्रति प्रसन्न होकर उस का कार्य, अपनी इच्छा से ही कर देता है । तथा जेकर उस का पूजों की तरफ उपयोग न हो अथवा पूजक का भाग्य मंत्र हो, तो जानता हुआ भी वह कार्य नहीं करता । क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि सहकारियों से कार्य का होना दीख पड़ता हैं । अरु जो पूजा उपचार है, सो केवल पशुओं के मारने ही से नहीं हो