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________________ [११०] द्योतन किया है कि, आत्मामें जैसे अस्तित्वधर्म है उसही प्रकार नास्तित्वादिक अनेक धर्म हैं. सकलादेशमें उच्चारित धर्मकेद्वारा शेषसमस्त धर्मोका संग्रह है और विकलादेशमें केवल 'शब्दद्वारा उच्चारित धर्मकाही ग्रहण हैं शेपंधर्मोंकी न विधि है और न निषेध है । इस प्रकार आदेशके वशसे सप्तभंग होते हैं क्योंकि अन्यभंगोकी प्रवृत्तिके निमित्तका अभाव है, अर्थात् भंग सातही हैं होनाधिक नहीं है । इसका खुलासा इसप्रकार है कि, वस्तुमें किसीएक धर्म तथा उसके प्रतियोगी धर्मकी अपेक्षासे सात भंग होते हैं, अर्थात् वस्तु किसीएक धर्मकी अपेक्षासे कथंचित् अस्तिस्वरूप है, उसके प्रतियोगी धर्मकी अपेक्षासे नास्तिखरूप है और दोनोंकी युगपत् विवक्षासे अबक्तव्य• स्वरूप है, इसप्रकार वस्तुमें किसीएक धर्म और उसके प्रतियोगीकी अपेक्षासे अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म होते हैं। इन तीन धर्मोंके संयुक्त और असंयुक्त सातहीभंग होते हैं, न हीन होते हैं और न अधिक होते हैं । भावार्थ-जैसे नौन, मिरच और खटाई इन तीन पदार्थोंके संयुक्त और असंयुक्त सातही खादं होसक्ते हैं होनाधिक नहीं होसक्ते अर्थात् एक नौनका खाद, दूसरा मिरचका• खाद और तीसरा खटाईकास्वाद, इसप्रकार तीन तो असंयुक्तस्वाद हैं और एक नौन और मिरचका, दूसरा नौन और खटाईका, तीसरा मिरच और खटाईका, और चौथा नौन मिरच और खटाईका, इसअंकार चार संयुक्तस्वाद हैं, सब मिलकर सातही 'स्वाद होते हैं हीनाधिक नहीं होते। इसही प्रकार जीवमेंमी अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन तो असंयुक्त भंग हैं और अस्तिनास्ति; अस्तिवक्तव्य नातिअवक्तव्य ·और अस्तिनास्लिअवक्तव्य ये चार संयुक्तभंग हैं, सब रमिलकर सातहीभंग होते हैं, हीनाधिक नहीं होतें, क्योंकि होनाधिक
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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