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________________ [१०९] तथापि व्यसनित्व और धर्मात्मत्व गुणकी अपेक्षासे अनेक स्वरूप कहा: जाता है । गुणोंके समुदायको ही द्रव्य कहते हैं । गुणोंसे. भिन्न द्रव्य. कोई पदार्थ नहीं है, गुण अनेक हैं और परस्पर भिन्न स्वरूप हैं,.. इसलिये उन अनेक गुणोंके समुदायरूप अखंड एक द्रव्यको पूर्वकथित कालादिककी भेद विवक्षासे अनेकस्वरूप निश्चय करनेको विकलादेश कहते हैं. __ सकलादेशकी तरह विकलादेशमेंभी सप्तभंगी है । उसका खुलासा इस प्रकार है कि, गुणीको भेदरूप करनेवाले अंशोंमें क्रमसे, युगपत्पनेसे तथा क्रम और युगपत्पनेसे विवक्षाके वशसे विकलादेश होते हैं । अर्थात् प्रथम और द्वितीय भंगमें असंयुक्त क्रम है, तीसरे भंगमें युगपत्पना है, चतुर्थमें संयुक्त क्रम है, पांचवें और छटे भंगमें असंयुक्तक्रम और योगपद्य है, और सातवेमें संयुक्तक्रम और योगपद्य हैं, भावार्थ-सामान्यादिक द्रव्यार्थादेशों से किसीएक धर्मके उपलभ्य- . मान (प्राप्त) होनेसे " स्यादस्त्येवात्मा " यह पहला विकलादेश है। यहां दूसरे धर्मोंका आत्मामें सद्भाव होनेपरभी पूर्वोक्त कालादिककी भेद विवक्षासे शब्दद्वारा निरूपणभी नहीं है और निरास. (खंडन) भी नहीं है इसलिये न उनकी विधि है और न प्रतिषेध है. इसही प्रकार दूसरे भंगोंमेभी विवक्षित अंशमात्रका निरूपण और शेपधर्मोकी उपेक्षा (उदासीनता) होनेसे विकलादेश कल्पना लगाना । इस विकलादेशमेंभी विशेष्यविशेषणभाव द्योतनके लिये विशेपणके साथ अवधारण (नियम) वाचक एव शब्दका प्रयोग किया. गया है. इस एच शब्दके प्रयोगसे अवधारण होनेसे अस्तित्व भिन्न अन्यधर्मोंकी निवृत्तिका प्रसंग आता है इसही कारण यहांभी स्यात् शब्दका प्रयोग किया है। भावार्थ-स्यात् शब्दका प्रयोग करनेसे यह
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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