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________________ [ ५७ ] कि, हानि होत होते कमी उसका अभाव हो जायगा अथवा वृद्धि होने २ हमेशा ही चला जायगा, जब कि एकगुणकी अनेक अवस्था है और वे नव समान नहीं हैं किन्तु हीनाधिकरूप हैं, तो एक अधिक अवस्थाले हीनावस्था घटानेसे उन दोनों अवस्थाओंका अन्तर निकालता है, और इसप्रकार एकगुणकी अनेक अवस्थाओं२ का अनेक अन्तर निकलेंगे और वे सब अन्तरभी सत्पर समान नहीं है किंतु हीनाधिक हैं. इन अनेक अन्तरोंमें जो अन्तर सबसे हीन है उसको जधन्य अन्तर कहते हैं, किसी गुणकी जघन्य अवस्था और उसका जवन्य अन्तर समान होते हैं, उसगुणकी जघन्य अवस्था तथा जनन्य अन्तर इन दोनोंको अविभागपरिच्छेद कहते हैं, प्रान्तु किनीगुणमें उस गुणका जवन्य अन्तर उसगुणकी जन्य अवस्थाके अनन्न भाग होता है, उस गुणमें उस जघन्य अन्तरकोही अविभागपरिच्छेद कहते हैं । ऐसी अवस्था में उसगुणकी जवन्य अवस्था अनन्त अविभागपरिच्छेद कहे जाते हैं जैसे कि, सूक्ष्मनिगोदियाव्यपर्यासकजीव जवन्यज्ञानमें अनन्तानन्त अविनागपरिच्छेद हैं, इन अविभागपरिच्छेदों का आत्मा ( जीवभूत) गुण है और गुणसे भिन्न इनकी सत्ता नहीं है, यहां इतना औरभी विशेष जानना कि एक समय एक गुणकी जो अवस्था है उसकी गुणांदा अर्थात् गुणपर्याय कहते हैं, परन्तु इस एक गुणपर्याय भी अनन्तगुणांश हैं, सो इन गुणांशोंको अविभागपरिच्छेद कहते हैं तथा गुणपर्यायभी कहते हैं । द्रव्यमें अनन्तगुण हैं, उनके दो विभाग हैं एक सामान्य दूसरा विशेष । व्यके सामान्य गुणोंमें छह गुण मुख्य हैं १ अस्तित्व २३ वस्तुत्व ४ अगुरुलघुत्व ५ प्रमेयत्व ६ प्रदेare | जिसशक्तिके निमित्तसे व्यका कभी भी अभाव नहीं होता 1
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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