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________________ 's [ ५६ ] विशेष कथन पहले कर आये हैं वहांसे जानना ) इसप्रकार इन निर्विशेष देशविशेषोंको गुण कहते हैं गुण, शक्ति, लक्ष्म, विशेष, धर्म, रूप, स्वभाव, प्रकृति, शील, और आकृति ये सब शब्द एक अर्थके कहनेवाले हैं। देशकी जो एकशक्ति है सोही अन्यशक्ति नहीं है किन्तु एकशक्तिकी तरह एक देशकी अनन्तशक्तियां हैं। जैसे एक आमके फलमें एकसमयमें स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण ये चार गुण दिखते हैं ये चारोंही गुण एक नहीं है किन्तु भिन्न २ हैं क्योंकि, जुदी २ इन्द्रियोंके विषय हैं । उसही प्रकार एक जीवमें दर्शन, ज्ञान, सुख, और चारित्र ये चारों गुण एक नहीं हैं किन्तु भिन्न २ हैं, इसही प्रकार प्रत्येक पदार्थमें अनन्त शक्तियाँ हैं । इन अनन्तगुणोंमेंसे प्रत्येकगुणमें अनन्त अनन्त गुणांश हैं, इसही गुणांशको अविभागपरिच्छेद कहते हैं इसका खुलासा इसप्रकार है कि, द्रव्यमें एकगुणकी एक समय में जो अवस्था होती है उसको एक गुणांश कहते हैं, इसहीका नाम गुणपर्याय है । जिसप्रकार देशमें विष्कम्भक्रमसे अंशकल्पना है उसप्रकार गुणमें गुणांशकल्पना नहीं है, देशका देशांश केवल एक प्रदेश व्यापी हैं किन्तु गुणका एक गुणांश एक समयमें उस द्रव्यके समस्त देशको व्यापकर रहता है इसलिये गुणमें अंशकल्पना कालक्रमसे है । प्रत्येक समयमें जो अवस्था किसी गुणकी है उसही अवस्थाको गुणांश अथवा गुणपर्याय कहते हैं त्रिकालवर्ती इस सब गुणांशोंको एक आलाप करके गुण कहते हैं। एक गुणकी सदाकाल एकसी अवस्था नहीं रहती है, उसमें प्रायः हीना धिकता होती रहती है, यद्यपि एक गुणमें प्रायः प्रतिसमय हीनाधिकता होती रहती है तथापि उसकी मर्यादा है। किसी गुणकी सबसे हीन अवस्थाको जघन्य अवस्था कहते हैं और सबसे अधिक अवस्थाको उत्कृष्ट अवस्था कहते हैं। ऐसा नहीं है . -
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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