SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४३] अगोचर है । इसी प्रकार सत् द्रव्यका आत्मभूत लक्षण है, युतसिद्ध नहीं है । युतसिद्ध माननेमें अग्नि और उष्णताकी तरह द्रव्य और सत दोनोंके अभावका प्रसङ्ग आता है, अथवा थोड़ी देरकेलिये. : मानभी लिया जाय कि, गुण और गुणी भिन्न हैं अर्थात् जीव और ज्ञान भिन्न २ हैं. पीछे समवाय पदार्थके निमित्तसे दोनोंका संबंध हुआ है तो जीव और ज्ञानका संबंध होनेसे पहले जीव ज्ञानी था कि, . अज्ञानी ? यदि कहोगे कि, ज्ञानी था तो ज्ञानगुणका संबंध निष्फल हुवा । यदि अज्ञानी था तो अज्ञानगुणके संबंधसे अज्ञानी था अथवा स्वभावसे ? यदि स्वभावसे अज्ञानी था तो स्वभावसे ज्ञानी माननेमें. क्या हानि है ? यदि अज्ञान गुणके संबंधसे अज्ञानी है तो अज्ञान गुणके संबंध से पहले अज्ञानी था कि ज्ञानी ? यदि अज्ञानी था तो अज्ञानगुणका संबंध निष्फल हुवा. यदि कहो कि, ज्ञानी था तो ज्ञानका समवाय तो है ही नहीं ! ज्ञानी किस प्रकार कह सकते हो ? इसही प्रकार यदि जीव में ज्ञानके सम्बन्धसे जाननेकी शक्ति है तो ज्ञानमें किसके सम्बन्धसे जाननेकी शक्ति है? यदि कहोगे कि, ज्ञानमें खभा - से जाननेकी शक्ति है तो जीव स्वभावसे जाननेकी शक्ति माननेमें क्या हानि है । यदि कहोगे कि, ज्ञानमें ज्ञानत्वके सम्बन्धसे जाननेकी शक्ति है तो ज्ञानत्वमें भी किसी दूसरेकी और उसमेंभी किसी औरकी आवश्यकता होनेसे अनवस्थादोप आयेगा. यदि यहां कोई इस प्रकार शंका करे कि, समवाय नामक अयुतसिद्धलक्षण सम्बन्ध हैं उसके निमित्तसे अभिन्नसदृश गुणगुणी प्रतीत होते हैं, ज्ञानत्व के समवायसे ज्ञानमें जाननेकी शक्ति है और ज्ञानगुणके समवायसे जीव ज्ञानी है । सोभी ठीक नहीं है. क्योंकि ऐसा कोई नियामक नहीं है कि, ज्ञानगुणका जीवसेही सम्बन्ध होय आकाशादिकसे न होय
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy