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________________ [३५]] ३ जो सोपाधिक गुण गुणीको भेदरूप ग्रहण करता है उसको 'उपचरितसद्भूतव्यवहार कहते हैं, जैसे जीत्रके मतिज्ञानादिक गुण हैं। ४ जो निरुपाधिक गुण गुणीको भेदरूप ग्रहण करता है उसको अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय कहते हैं, जैसे जीवके केवलज्ञानादिक गुण हैं। __ जो भिन्न पदार्थको अभेद रूप ग्रहण करता है उसको असनभूतव्यवहारनय कहते हैं। उसके भी दो भेद हैं, एक उपचरितासद्भूतव्यवहार दूसरा अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनय । ५ जो संश्लेपरहित वस्तुको अभेद रूप ग्रहण करता है उसे उपचरितासद्भूत व्यवहारनय कहते हैं, जैसे आभरणादिक मेरे हैं। ६ जो संश्लेषरहित वस्तुको अभेदरूप ग्रहण करता है उसे अनुपचरितासद्भूत व्यवहारनय कहते हैं, जैसे शरीर मेरा है। यद्यपि ये छह भेद किसी आचार्यने अध्यात्म सम्बन्धमें संक्षेपसे कहे हैं, परन्तु ये छह भेद प्रथम कहे हुए ३६ भेदोंमेंसे किसी न किसी भेदमें गर्भित हो जाते हैं; अर्थात् शुद्ध निश्चयनय भेदविकल्प- ' निरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिकमें, अशुद्धनिश्चयनय कार्मोपाधिसापेक्षअशुद्धद्रव्यार्थिकमें, उपचरितसद्भूतव्यवहारनय अशुद्धसद्भूतव्यवहारनयमें, अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय शुद्धसद्भूतव्यवहारनयमें, अनुपचरित और उपचरितसद्भूतव्यवहारनय उपचरित (उपचरितासद्भूत) व्यवहार'नयमें. गर्भित है। इस प्रकार नयका कथन समाप्त हुआ।. ... ___ अब आगे निक्षेपका कथन इस प्रकार है प्रथमही निक्षेप सामान्यका लक्षण कहते हैं।
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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