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________________ [३४] ६ मित्र पुत्रादि वन्धुवर्ग मेरे हैं यह सजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारनयका विषय है। ७ आभरण हेम रत्नादिक मेरे हैं यह विजात्युपचरितासह - तव्यवहारनयका विषय है। ८ देश राज्य दुर्गादिक मेरे हैं यह मिश्रोपचरितासद्भूतव्यवहारनयका विषय है। इस प्रकार यह व्यवहार नयके आठ भेदोंका कथन हुआ और निश्चय नयके २८ भेदोंका कथन पहिले कर चुके इस प्रकार नयके सब ३६ भेदोंका कथन समाप्त हुआ.। अव किसी आचार्यने अध्यात्म भाषासे नयके भेदोंका स्वरूप लिखा है उसे लिखते हैं। नयके मूल भेद दो हैं एक निश्चय. दूसरा व्यवहार । . : .. १ जिसका अभेदरूप विषय है उसको निश्चयनय कहते हैं । २ जिसका भेदरूप विषय है उसको व्यवहारनय कहते हैं। निश्चयनयके दो भेद हैं, एक शुद्धनिश्चयनय. दूसरा अशुद्धनिश्चयनय । १ जो निरूपाधिक गुण गुणीको अभेद रूप ग्रहण करता है उसको शुद्धनिश्चयनय कहते हैं, जैसे जीव केवलज्ञानस्वरूप है। २. जो सोपाधिक गुण. गुणीको अभेदरूप ग्रहण करता है उसको अशुद्धनिश्चयनय कहते हैं जैसे जीव मतिज्ञानस्वरूप है। व्यवहार नयके. भी दो भेद हैं एक सद्भूतव्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय ।. . .. . . . . . ..जो एक पदार्थमें गुण गुणीको.. भेदरूप. ग्रहण करता है उसको सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं. उसके भी दो भेद हैं, एक उपचरितसद्भूत दूसरा अनुपचरितसद्भत । ... ... . : . . . .
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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