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________________ [३१] है । इन दोनों गाथाओंका चरितार्थ एकही है किंतु कथनशैली भिन्न २ है उसका खुलासा इस प्रकार है कि, संसार में जितने शब्द हैं उतनेही परमार्थरूप पदार्थ हैं, ऐसाही कार्तिकेय स्वामीने कहा है. गाथा - किंबहुना उत्तेणय जित्तिय मेत्ताणि सति णामाणि तित्तियभेत्ता अत्था संति हि णियमेण परमत्था ॥ १ ॥ फिर जो संसार में एक पदार्थके वाचक अनेक शब्द दिखाई देते "है जैसे इन्द्र, पुरन्दर, शक्र, जल, अप्, भार्या, कलत्र । इसका तात्पर्य - यह है कि, प्रत्येक पदार्थमें अनेक शक्ति हैं और एक एक शब्द एक एक शक्तिका वाचक है इसही कारणसे भिन्न लिङ्ग संख्यादि चाचक अनेक शब्दोंका एक पदार्थमें पर्यवसान होना सदोष नहीं हो · सकता अर्थात् इसमें व्यभिचार नहीं है । किन्तु जो जो शब्द जिस जिस शक्तिके वाचक हैं उन उन शक्तिरूप उस पदार्थको भेदरूप - मानना यही शब्दनयका विषय है. १ एक शब्दके अनेक वाच्य है उनमेंसे एक मुख्य वाच्यको किसी एक पदार्थ में देख उसपर आरूढ हो उस पदार्थके अन्य क्रियारूप परिणत होनेपरभी उस पदार्थको अपना वाच्य माने यह समभिरूढ नयका विषय है । जैसे गो शब्दके अनेक अर्थ हैं, उनमेंसे एक अर्थ गतिमत्व है । यह गतिमत्व मनुष्य, हस्ती, घोटक, वलध इत्यादि अनेक पदार्थों में है किन्तु वलध पदार्थमेंही आरूढ होकर उस वलधको सोते बैठते आदि अन्य क्रिया करने परभी गो शब्दका वाच्य - मानना यही समभिरूढ नयका विषय है । १. जिस क्रियावाचक जो शब्द उसही क्रियारूप परिणत पदार्थको ग्रहण करै उसको एवंभूतनय कहते हैं । जैसे गौ जिस कालमें गमन
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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