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________________ [३२] करै उसही कालमें उसको गो कहे अन्य क्रिया करते हुए उसे गो न कहे यही एवंभूतनयका विषय है । • शब्द समभिरूढ और एवंभूत ये तीन नय शब्दकी प्रधानता लेकर प्रवर्तें हैं इस कारण इनको शब्दनय कहते हैं और नैगम: संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थकी प्रधानता लेकर प्रवर्तें हैं इस कारण इनको अर्थनय कहते हैं । इस प्रकार निश्चयनयके २८ भेदोंका कथन समाप्त हुआ । अव आगे व्यवहारनयके आठ भेदोंके लक्षण कहते हैं । १ एक द्रव्यमें गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, कारक कारकवान्, स्वभाव स्वभाववान्, इत्यादि भेदरूप कल्पना करना शुद्धसद्भूतव्यवहारनयका विषय हैं । २. अखंड द्रव्यको वहुप्रदेशरूप कल्पना करना अशुद्ध सद्भूतः -: व्यवहारनयका विषय है । . अन्यत्रः प्रसिद्धः धर्मकाः अन्यत्र समारोपण करना असद्भूतव्यवहारनयका विषय है, उसके तीन भेद हैं । ३ सजात्यसद्भूतव्यवहार ४ त्रिजात्य सद्भूतव्यवहार । ·. ५. स्वजातिविजात्यस भूतव्यवहार । इन तीनोंमेंसेः प्रत्येकके नौ, नौ भेद होते हैं । अर्थात् १ द्रव्यमें द्रव्यका समारोप २ द्रव्यंमें गुणका समारोप, ३ द्रव्यमें पर्यायका समारोप, ४ गुणमें गुणका समारोप, ५ गुणमें द्रव्यका समारोप, ६ गुणमें, पर्यायका, समारोप, ७ पर्यायमें पर्यायका समारोप, ८ पर्यायमें गुणका समारोप ९ और पर्यायमें द्रव्यका, समारोप... जैसे चन्द्रमाँके
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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