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________________ [२२] आगमप्रमाण कहते हैं । इस प्रकार प्रमाणके निरूपण होनेके अनन्तर नयके स्वरूपका विवेचन किया जाता है । प्रत्येक वस्तुमें अनंत धर्म पाये जाते हैं; इस कारण वस्तुको अनेक धर्मात्मक व अनेकान्तात्मक ( धर्म व अन्त इनका एकही अर्थ है ) कहते हैं. अर्थात् वस्तु कथञ्चित् नित्य है कथञ्चित् अनिल है . कथञ्चित् एक है कथञ्चित् अनेक है, कथञ्चित् सर्वगत है कथञ्चित् अस-र्वगत है, इत्यादि अनेक धर्मविशिष्ट है. यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वृक्षसे फलपुष्पादिककी अनुत्यत्तिका प्रसंग आवेगा अथवा सर्वथा अनित्यही हो तो प्रत्यभिज्ञान ( यह वही है, जो पहले था ) के. अभावका प्रसङ्ग आवेगा अथवा सर्वथा नित्य मानने से वस्तु अर्थ -- क्रियाकारी सिद्ध नहीं हो सकती और जो अर्थक्रियारहित कूटस्थ: है वह वस्तुही नहीं हो सकती, इत्यादि अनेक दोष आयेंगे. इस कारण वस्तु अनेकान्तात्मक ही है । ज्ञान दो प्रकारका है - एक स्वार्थ और दूसरा परार्थ । जो परोपदेशके विना स्वयं हो उसको स्वार्थ कहते हैं और जो परोपदेशपूर्वक हो उसको परार्थ कहते हैं । मति,. अवधि, मन:पर्यय, केवल ये चारों ज्ञान स्वार्थही है और श्रुतज्ञान स्वार्थभी है और परार्थभी है । जो श्रुतज्ञान श्रोत्रविना अन्य इंद्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होता है वह स्वार्थ श्रुतज्ञान है, और जो श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होता है वह परार्थभुतज्ञान है । भावार्थ- अनंत गुणोंक. अखंड पिंडको द्रव्य कहते हैं. गुणोंसे भिन्न द्रव्य कोई जुदा पदार्थ नहीं है इसलिये उसका निरूपण गुणवाचक शब्दके विना नहीं हो: सकता । इसलिये अस्तित्व आदि अनेक गुणोंके समुदायरूप एक द्रव्यका निरंशरूप समस्तपनेसे अभेदवृत्ति तथा अभेदोपचार कर एक
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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