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________________ [१५] से साधनका अज्ञान हट जायगा नं कि अग्निका, इसलिये साधनसें साध्यके ज्ञान होनेको अनुमान कहते हैं । इस अनुमान ज्ञानके पैदा होनेकी परिपाटी वं क्रम यों है-जब कोई आदमी धूम और अग्निको रसोईघर, अथाई व और अनेक जगहोंमें बार बार एक ही साय देखता है, तो वह निश्चय कर लेता है कि धूम और अग्नि एक ही साथ होती है। परन्तु उसके साथ ही साथ, उसनें एक या दो जगह ऐसा भी देखा कि वहाँ केवल अग्नि है और धूम नहीं, तब उसे निश्चय होता है कि ओह ! जहाँ जहाँ धूम होता हैं वहाँ वहाँ अग्नि जरूर ही होती है, परन्तु जहाँ जहाँ अग्नि होती हैं वहाँ वहाँ धूम होता भी है और नहीं भी होता है, इस तरहके ज्ञान होनेके बाद, उसे जब कभी किसी जगह केवल धूम दिखाई देता और अग्नि दिखाई नहीं देती, उस जगह वह व्याप्ति ( जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है ) को स्मरण करता है और फिर अनुमान करता है कि “ यहाँ कहीं अग्नि होनी चाहिये अन्यथा यदि यहाँ अग्निं न होती तो धूम क्यों दिखता" बस ऐसे ही ( साधनसे साध्यके ज्ञान को ) ज्ञानको अनुमान कहते हैं । इस अनुमानः ज्ञानके दो भेद हैं एक स्वार्थानुमान दूसरा परार्थानुमान । किसी दूसरे परोपदेशादिककी अपेक्षा न रखते हुए, स्वयं-अपने आप निश्चय किये हुए और पंहले तर्क ज्ञानके द्वारा अनुभव किये हुए, साध्यसाधनकी व्याप्तिको स्मरण करते हुए, अविनाभावी धूमादिक हेतुके द्वारा किसी पर्वत. आदिक धर्मीमें उत्पन्न हुए.. अग्नि आदि सांध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते हैं । इसके तीन अंग हैं अर्थात् इस' स्वार्थानुमान ज्ञानके होनेमें तीन पदार्थोंकी आवश्यकंता होती हैं धर्मी १, साध्य २, साधन ३ । धर्मी उसे कहते हैं
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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