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________________ २२ "प्रबन्धसम्बन्धी तमाम काम करनेके सिवाय अध्यापन कार्य भी उन्हें करना पड़ता था । हमने देखा है कि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा, जिस दिन पण्डितजीको अपने कमसे कम चार घण्टे विद्यालयके लिए न देने पड़ते हों। जिन दिनोंमें पण्डितजीका व्यापारसम्बन्धी काम बढ़ जाता था और उन्हें समय नहीं मिलता था, उस समय बड़ी भारी थकावट हो जाने पर भी वे कभी कभी १०-११ बजे रातको विद्यालयमें आते थे और विद्यार्थियोंको घंटा भर पढ़ाकर सन्तोष पाते थे । गत कई वर्षोंसे पण्डितजीका शरीर बहुत शिथिल हो गया था, फिर भी धर्मके कामके लिए वे बड़ी बड़ी लम्बी सफरें करनेसे नहीं चूकते थे । अभी भिण्डके मेलेके लिए जब आप गये, - आपका स्वास्थ्य बहुत ही चिन्तनीय था और वहाँ जानेसे ही, इसमें सन्देह नहीं कि आपकी अन्तिम घटिका और जल्दी आ गई । पण्डितजीकी निःस्वार्थवृत्ति और दयानतदारी पर लोगोंको दृढ़ विश्वास था । यही कारण है जो बिना किसी स्थिर आमदनी के वे 'विद्यालयके लिए लगभग दश हजार रुपया सालकी सहायता प्राप्त : कर लेते थे । " • * कौटुम्बिक कष्ट । पण्डितजीको जहाँ तक हम जानते हैं कुटुम्बसम्बन्धी सुख कभी प्राप्त नहीं हुआ । इस विषय में हम उन्हें ग्रीसके प्रसिद्ध विद्वान् सुकरातके समकक्ष समझते हैं । पण्डितानीजीका स्वभाव बहुत ही कर्कश, क्रूर, कठोर, जिद्दी और अर्द्धविक्षिप्त है । जहाँ पण्डितजीको लोग देवता समझते थे, वहाँ पण्डितानीजी उन्हें कौड़ी कामका भी आदमी नहीं समझती थीं ! वे उन्हें बहुत ही तंग करती थीं और इस चातका जरा भी खयाल नहीं रखती थीं कि मेरे वर्तावसे पण्डितजीकी कितनी अप्रतिष्ठा होती होगी। कभी कभी पण्डितानीजीका धाचा विद्यालय पर भी होता था और उस समय छात्रों तककी आफत आ जाती थी ! .
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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