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________________ नहीं। पर पण्डितजी इस विषयमें अपवादं थे । वे एक अच्छे विचारक. थे। वे अपनी विचारशक्तिके बलसे पदार्थका स्वरूप इस ढंगसे बत-. लाते थे कि उसमें एक नूतनता मालूम होती थी। उन्होंने जैनासद्धा-- न्तकी ऐसी अनेक गाँठे सुलझाई थीं, जो इस समयके किसी भी विद्यानसे नहीं खोली जाती थीं । वे गोम्मटसारके प्रसिद्ध टीकाकार स्व० पं० टोडरमलजीकी भी कई सूक्ष्म भूलें बतलानेमें समर्थ हुए थे। जैनभूगो-- लके विषयमें उन्होंने जितना विचार किया था, और इस विषयको सच्चा समझनेके लिए जो जो कल्पनायें की थीं, वे बड़ी ही कुतूहल-. वर्धक थीं । एक बार उन्होंने उत्तर-दक्षिण ध्रुवोंकी छह महीनेकी रात और दिनको भी जैनभूगोलके अनुसार सत्य सिद्ध करके दिखलानेका. प्रयत्न किया था। वर्तमानके योरोप आदि देशोंको. उन्होंने भरतक्षेत्रमें. ही सिद्ध किया था और शास्त्रोक्त लम्बाई चौड़ाईसे वर्तमानका मेल न. खानेका कारण पृथिवीका वृद्धिम्हास या घटना बढ़ना 'भरतैरावतयोर्वृद्धि हासौ ' आदि सूत्रके आधारसे बतलाया था । यदि पण्डितजीके विचारोंका क्षेत्र केवल अपने ग्रन्थोंकी ही परिधिके भीतर कैद न होता, सारे ही जैनन्थोंको प्राचीन और अर्वाचीनोंको-वे केवली भगवानकी ही. दिव्यध्वानके सदृश न समझते होते, तो वे इस समयके एक अपूर्व विचारक होते, उनकी प्रतिमा जैनधर्मपर एक अपूर्व ही प्रकाश डालती और उनके द्वारा जैनसमाजका आशातीत कल्याण होता। निःस्वार्थसेवा । . पण्डितजीकी प्रतिष्ठा और सफलताका सबसे बड़ा कारण उनकी निःस्वार्थ सेवाका या परोपकारशीलताका भाव है । एक इसी गुणसे वे इस समयके सबसे बड़े जैनपाण्डित कहला गये । जैनसमाजके लिए उन्होंने अपने जीवनमें जो कुछ किया, उसका बदला कभी नहीं चाहा । जैनधर्मकी उन्नति हो, जैनसिद्धान्तके जाननेवालोंकी संख्या बढे, केवल इसी भावनासे उन्होंने निरन्तर परिश्रम किया । अपने विद्यालयका
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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