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न्न टिक सकता था। आपको अपनी इस शक्तिका उचित अभिमान कहा करते थे । कि मैं अमुक अमुक महामहो
था, कभी कभी आप
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- पाध्यायोंको भी बहुत जल्दी पराजित कर सकता हूँ; परन्तु क्या करूँ, उनके सामने घण्टोंतक धाराप्रवाह संस्कृत बोलने की शक्ति मुझमें नहीं है । पण्डितजी संस्कृतमें बातचीत कर सकते थे और अपने छात्रोंके साथ तो वे घण्टों बोला करते थे, परन्तु फिर भी उनका व्याकरण इतना पक्का नहीं था, कि वे उसकी सहायतासे शुद्ध संस्कृतके प्रयोग औरों के सामने निर्भय होकर करते रहें ।
लेखनकौशल |
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पण्डितोंको लिखनेका अभ्यास नहीं रहता है, पर पण्डितजी इस विषयमें अपवाद थे । उनमें अच्छी लेखनशक्ति थी । यद्यपि अन्यान्य कामोंमे फँसे रहनेके कारण उनकी इस शक्तिका विकास नहीं हुआ और उन्होंनें प्रयत्न भी बहुत कम किया; फिर भी हम उन्हें जैनसमा. जके अच्छे लेखक कह सकते हैं । उनके बनाये हुए तीन ग्रन्थ हैं, जैन सिद्धान्तदर्पण, सुशीलाउपन्यास और जैन सिद्धान्तप्रवेशिका । जैनसिद्धान्तदर्पणका केवल एक ही भाग है। यदि इसके आगे के भी भाग लिखे गये होते, तो जैनसाहित्यमें यह एक बड़े कामकी चीज होती । यह पहला भाग भी बहुत अच्छा है । प्रवेशिका जैनधर्मके विद्यार्थियोंके लिए एक छोटेसे पारिभाषिक कोशका काम देती है । : इसका बहुत प्रचार है । सुशीलाउपन्यास उस समय लिखा • गया था, जब हिन्दीमें अच्छे उपन्यासोंका एक तरहसे अभाव था और आश्वर्यजनक घटनाओंके विना उपन्यास उपन्यास ही न समझा जाता था। उस समयकी दृष्टिसे इसकी रचना अच्छे उपन्यासोंमें की जा सकती है। इसके भीतर जैनधर्मके कुछ गंभीर विषय डाल दिये गये हैं, जो एक उपन्यास में नहीं चाहिए थे, फिर भी वे बड़े महत्त्वके हैं। इन तीन पुस्तकोंके सिवाय पण्डितजीने सार्वधर्म, जैनजागरफी आदि कई छोटे छोटे 'ट्रेक्ट भी लिखे थे ।