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और निरन्तरके अध्यवसायसे पाण्डित्य प्राप्त किया था । पण्डितजी जीवनभर विद्यार्थी रहे । उन्होंने जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया, वह अपने ही अध्ययनके बल पर और इस कारण उसका मूल्य रटे हुए या धोखे हुए ज्ञानसे बहुत अधिक था । उन्हें लगातार दश वर्षतक बीसों विद्यार्थियों को पढ़ाना पड़ा और उनकी शंकाओंका समाधान -करना पड़ा | विद्यार्थी प्रौढ़ थे, कई न्यायाचार्य और तर्कतीथॉने भी आपके पास पढ़ा है, इस कारण प्रत्येक शंकापर : आपको घंटों परिश्रम करना पड़ता था । जैनधर्मके प्रायः सभी बड़े बढ़े उपलब्ध ग्रन्थोंको उन्हें आवश्यकताओंके कारण पढ़ना पड़ा । इसका यह फल हुआ कि उनका पाण्डित्य असामान्य हो गया । वे न्याय और धर्मशास्त्र के बेजोड़ विद्वान हो गये और इस बातको न केवल जैनोंने, किन्तु कलकत्तेके बड़े बड़े महामहोपाध्यायों और तर्कवाचस्प. तियोंने भी माना । विक्रमकी इस बीसवीं शताब्दकि आप सबसे बड़े जैन पण्डित थे, आपकी प्रतिभा और स्मरणशक्ति विलक्षण थी।
वक्तृत्व और वादित्वं ।
पण्डितजीकी व्याख्यान देनेकी शक्ति भी बहुत अच्छी थी । यह मी आपको अभ्यासके बलसे प्राप्त हुई थी। आपके व्याख्यानोंमें यद्यपि मनोरंजकता नहीं रहती थी और जैनसिद्धान्त के सिवाय अन्य विषयोंपर आप बहुत ही कम बोलते थे । फिर भी आप लगातार दो दो तीन तीन घंटेतक व्याख्यान दे सकते थे । आपके व्याख्यान विद्वानोंके ही कामके होते थे । वाद या शास्त्रार्थ करनेकी शक्ति आपमें चड़ी विलक्षण थी । जब जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा झटावेके दौरे शुरू हुए और उसने पण्डितजीको अपना अगुआ बनाया, तब पण्डितजीको इस शक्तिका खूब ही विकास हुआ । आर्यसमाजके कई बड़े बड़े शास्त्रार्थोंमें आपकी वास्तविक विजय हुई और उस विजयको प्रतिपक्षियोंने' भी स्वीकार किया । बड़ेसे बड़ा विद्वान् आपके आगे बहुत समयतक
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