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इच्छा हुई । आपके पास पं० वंशीधरजी कुण्डलपुरके मेलेके पहलेहीसे पढ़ते थे। अन दो तीन विद्यार्थी. और भी जैनसिद्धान्तका अध्ययन करनेके लिये जाकर रहने लगे । इन्हें छात्रवृत्तियाँ बाहरसे मिलती थीं। पण्डितजी केवल इन्हें पढ़ा देते थे। इसके बाद कुछ विद्यार्थी और भी आ गये और एक व्याकरणके अध्यापक रखनेकी आवश्यकता हुई जिसके लिये सबसे पहले सेठ सूरचन्द शिवरामजीने ३०) रु० मासिक सहायतां देना स्वीकार किया । धीरे धीरे छात्रोंकी संख्या इतनी हो गई कि पण्डितजीको उनके लिए नियमित पाठशाला और छात्रालयकी स्थापना करनी पड़ी । यही पाठशाला आज ‘जैनसिद्धान्तविद्यालय के नामसे प्रसिद्ध है। ___ ग्वालियर स्टेटकी ओरसे पण्डितजीको मोरेनामें आनरेरी मजिस्ट्रेटका पद प्राप्त था। वहाँके चेम्बर आफ कामर्स और पञ्चायती बोर्ड के भी आप मेम्बर थे । बम्बई प्रांतिक सभाने आपको 'स्थाबादवारिधि, , इटावेकी जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभाने 'वादिंगजकेसरी' और कलकत्तेके गवर्नमेंट संस्कृतकालेजके पण्डितोंने 'न्यायवाचस्पति' पदवी प्रदान की थी । सन् १९९२ में दक्षिण महाराष्ट्र जैनसभाने आपको अपने वार्षिक अधिवेशनका सभापति बनाया था जौर आपका बहुत बड़ा सम्मान किया था।
बस पण्डितजीके जीवनकी मुख्य मुख्य घटनायें यही हैं । अब हम पण्डितजीके सास खास गुणोंपर कुछ विचार करेंगे ।
. . . पाण्डित्य । पाठक . ऊपर पढ़ चुके हैं कि पण्डितजीकी पठित विद्या बहुत ही थोड़ी थी। जिस संस्कृतके वे पण्डित कहला गये, उसका उन्होनें कोई एक भी व्याकरण अच्छी तरह नहीं पढ़ा था । गुरुमुखसे तो उन्होंने बहुत ही थोड़ा नाममात्रको पढ़ा था। तब वे इतने बड़े विद्वान कैसे हो गये ? इसका. उत्तर यह है कि उन्होंने स्वावलम्बनशीलता