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१४ जम्बूस्वामीके मेलेमें मी वम्बई सभाने इन्हें भेजा आर. इनके उद्योगसे वहाँ पर महासभाका कार्य शुरू हुआ । महासभाके महाविद्यालयके प्रारंभका काम आपके ही द्वारा होता रहा है । लगभग सं० १९५३ के भारतवर्षीय दिगम्बरजैनपरीक्षालय स्थापित हुआ और उसका. काम आपने बड़ी ही कुशलतासे सम्पादन किया । इसके बाद आपने, . दिगम्बरजैनसभा बम्बईकी ओरसे जनवरी सन् १९०० में (सं० १९५६ के लगभग ) 'जैनमित्र' का निकालना शुरू किया । पण्डितजीकी कीर्तिका मुख्य स्तंभ ' जैनमित्र' है यह पहले ६ वर्षांतक मासिक रूपमें और फिर संवत् १९६२ की कार्तिक सुदीसे २-३ वर्षतक पाक्षि-. करूपमें पण्डितजीके सम्पादकत्वमें निकलता रहा । सं० १९६५ के. १८३ अंक तक जैनमित्रकी सम्पादकीमें पण्डितजीका नाम रहा ।। इसकी दशा उस समयके तमाम पत्रोंसे अच्छी थी, इस कारण इसका . प्रायः प्रत्येक आन्दोलन सफल होता था। सं०. १९५८ के आसोजमें बम्बई प्रान्तिक सभाकी स्थापना हुई, और इसका पहला अधिवेशन' माघ सुदी ८ को आकलूजकी प्रतिष्ठापर हुआ । इसके मंत्रीका काम: पण्डितजी ही करते थे और आगे बराबर आठ दश वर्षतक करते. रहे । प्रान्तिक सभाके द्वारा संस्कृत विद्यालयः बम्बई, परीक्षालय,. तीर्थक्षेत्र, उपदेशकभण्डार आदिके जो जो काम होते रहे हैं, वे. पाठकोंसे छुपे नहीं है। __ वम्बईकी दिगम्बर जैनपाठशाला सं० १९५० में स्थापित हुई थी। पं० जीवराम लल्लूराम शास्त्रीके पास आपने परीक्षामुख, चन्द्रप्रभकाव्य..
और कातंत्रव्याकरणको इसी पाठशालामें पढ़ा था । — कुण्डलपुरके महासभाके जल्समें यह सम्मति हुई कि महाविद्यालय सहारनपुरसे उठाकर मोरेनामें पण्डितजीके पास भेज दिया जाया. परन्तु पण्डितजीका वैमनस्य चम्पतरायजीके साथ इतना बढ़ा हुआ था.. कि उन्होंने उनके अण्डरमें रहकर इस कामको स्वीकार न किया ! इसी समय उन्हें. एक स्वतंत्र जैनपाठशाला खोलकर काम करने की