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________________ [२०९] आठवां अधिकार | सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा | परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानं । सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ अनेक मतों का यह सिद्धान्त है कि इस सृष्टिका कर्ता हर्ता कोई ईश्वर अवश्य है । अतः इस विषयकी न्यायसे मीमांसा की जाती है । पूर्ण आशा, तथा विश्वास है कि सज्जनगण पक्षपातरहित हो इसपर समुचित विचारकर कल्याणमार्गके अन्वेपी होवेंगे । प्रथमही जनमतका इस विपयमें क्या सिद्धान्त है इसका विवेचन करके सृष्टिकर्तृत्वपर मीमांसा प्रारम्भ की जायगी । प्रश्न १- लोकका लक्षण क्या है ? उत्तर- "लोक्यन्ते जीवादयो यस्मिन् स लोकः " अर्थात् जितने आकाशमें जीवादिक द्रव्य देखनेमें आते हैं, उसको लोक कहते हैं । प्रश्न २ - द्रव्यका सामान्य और विशेष लक्षण क्या है ? उत्तर - जो सत् अर्थात् उत्पत्ति विनाश और स्थिति करके सहित हो उसे द्रव्य कहते हैं, भावार्थ जो एक अवस्थाको छोडकर दूसरी अवस्थाको सदाकाल प्राप्त होता रहै उसे द्रव्य कहते हैं । उस द्रव्यकी अवस्था दो प्रकार की है, एक सहभावी और दूसरी कमभावी । सहभावी अवस्थाको गुण कहते हैं क्रमभावीको पर्याय कहते हैं । और इसही कारण गुणपर्य्यायवानपणाभी द्रव्यका लक्षण हैं । उस द्रव्यके ६ भेद हैं- १ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म, ४ अधर्म, ५ आकाश, ६ काल । १ जीव उसको कहते हैं जो १४ जे. सि. द.
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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