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________________ কাত [२०८] हैं और मिट्टी वगैरह खाया करते हैं । इस कालमें जीवोंकी आयु कायादिक क्रमसे बढते हैं । इसके पीछे उत्सर्पिणीका दुःषमा नामका काल प्रवर्तता है। इस कालमें जव एक हजार वर्ष बाकी रह जाते हैं। तव कनक, कनकप्रभ इत्यादि १६ कुलकर होते हैं ये कुलकर मनुष्योंको क्षत्रिय आदिक कुलोंके आचार तथा अग्निसे अन्नादिक पकानेकी विधि बतलाते हैं उसके पीछे दुःपमा दुःषमा नामकाः तीसरा काल प्रवर्तता है जिसमें त्रेसठशलाका पुरुष होते हैं। उत्सर्पिणीमें केवल इसही कालमें मोक्ष होता है। तत्पश्चात् चौथे, पांचवे. और छठे कालमें भोगभूमि हैं जिनमें आयुकायादिक क्रमसे बढते जाते हैं । भावार्थ-अवसर्पिणीके ११२।३।१५।६ कालकी रचना उत्सर्पिणी ६।५।४।३।२।१ कालकी रचनाके समान है । इतना विशेष जानना कि आयु काय आदिकी क्रमसे अवसर्पिणी कालमें तो हानि होती है और उत्सर्पिणी कालमें वृद्धि होती है । इसप्रकारः यह कालचक्र निरंतरही घूमता रहता है जिससे कि पदार्थोमें प्रतिसमय परिणमन होता रहता है यानी पदार्थ अपनी हालतें वदलते रहते हैं । इसलिये नहीं मालूम कि इस समयसे दूसरे समयमें . क्या होनेवाला है | गया हुआ वक्त फिर नहीं मिल सकता है। इसलिये हमेशाही अपने कर्तव्यकर्मको बहुतही होशियारीके साथ जल्दी करना चाहिये। इस प्रकार जैनसिद्धान्तदर्पणग्रंथमें कालद्रव्यनिरूपणनामक . सातवां अध्याय समाप्त हुआ।
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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