SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८१] रचना है । दूसरे कालकी आदिकी रचना हरि और रम्यकक्षेत्रमें. सदाकाल रहती है । तीसरे कालकी आदिकी रचना हैमवत और हरण्यवत क्षेत्रमें अवस्थित है । चौथे कालकी आदिकी रचना विदेह क्षेत्रोंमें अवस्थित है । भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके पांच पांच म्लेच्छखंड तथा विद्याधरोंके निवासभूत विजयाई पर्वतकी श्रेणियोंमें सदा चौथा काल प्रवर्तता है । यहां इतना विशेष जानना कि, जब आर्यखंडमें अवसर्पिणीका प्रथम द्वितीय तृतीय तथा उत्सर्पिणीका चतुर्थ पंचम पष्ट काल वर्तता है, उस समय यहां अवसर्पिणीके चतुर्थ कालय आदिकी अथवा उत्सर्पिणीके तृतीय कालके अंतकी रचना रहती है । तथा जिस समय आर्यखंडमें अवसर्पिणीके पंचम और पष्ट नया उत्सर्पिणीके प्रथम और द्वितीय कालकी रचना है, उस समय यहां अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अंतकी अथवा उत्सपिणीके तृतीय काटक आदिकी रचना है । और आर्यखंडमें जिस प्रकार क्रमसे हानिवृद्धियुक्त अवसर्पिणीके चतुर्थ अथवा उत्सर्पिणीके नृतीयकालकी रचना है, उसही प्रकार यहां भी जानना । आधा वयंभरमण होप तथा समस्त स्वयंभरमण समुद्रमें और चारों कोनोंकी पृथिवियोंमें पंचमकालका आदिकीसी दुःपमा कालकी रचना है। और इनके सिवाय मनुष्यलोकसे बाहर समस्त द्वीपोंमें तथा कुभोगभमियोंमें तीसरे कालका आदिकी सी जघन्य भोगभूमिकी रचना है। लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्र में ०६ अन्तर्वीप हैं, जिनमें कुभोगभूमिकी रचना है । पात्रदानके प्रभावसे यह जीव भोगभूमिमें उपजता है । और. कुपात्रदानके प्रभावसे कुभोगभूमिमें जाता है । इन कुभोगभूमियोंमें एक पल्य आयुके धारक कुमनुष्य निवास करते हैं । इन कुमनुष्योंकी आकृति नानाप्रकार है। किसीके केवल एक जंघा है ।
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy