SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१८०] उत्सर्पिणीके दुःषमादुःषमा नामकप्रथम कालमें सबसे पहले सात दिन जलवृष्टि, सात दिन दुग्धवृष्टि, सात दिन घृतवृष्टि और सात दिनतक. अमृतवृष्टि होती है। जिससे पृथ्वीमें पहले अग्निआदिककी वृष्टिसे जो उष्णता हुई थी, वह चली जाती है और पृथ्वी कान्तियुक्त सचिक्कण हो जाती है और जलादिककी वर्षासे नानाप्रकार लता बेलि विविधः औषधि तथा गुल्मवृक्षादिक वनस्पति, उत्पत्ति तथा वृद्धिको प्राप्तः होती हैं। इस समय पृथ्वीकी शीतलता तथा सुगन्धताके निमित्तसे पहले जो प्राणी विजयाई तथा गंगा सिंधु नदीकी वेदियोंके बिलोंमें पहुंच गये थे, वे इस पृथ्वीपर आकर जहां तहां बस जाते हैं। इस कालमें मनुष्य धर्मरहित नग्न रहते हैं और मृत्तिका आदिकाः आहार करते हैं । इस कालमें जीवोंकी आयु कायादिक क्रमसे वढते हैं । इसके पीछे उत्सर्पिणीका दुःषमा नामक दूसरा काल प्रवर्तताः है । इस कालमें जब एक हजार वर्ष अवशिष्ट रहते हैं, तब १६ कुलकर होते हैं । ये कुलकर मनुष्योंको क्षत्रिय आदिक कुलोंके आचार तथा अग्निसे अन्नादिक पचानेका विधान सिखाते हैं। उसके पीछे दुःषमासुषमा नामक तृतीयकाल प्रवर्तता है, जिसमें वेसठ शलाकापुरुष होते हैं । उत्सर्पिणीमें केवल इसही कालमें मोक्ष होती है । तत्पश्चात् चौथे पांचवें और छठे कालमें भोगभूमि हैं। जिनमें आयुः कायादिक क्रमसे बढ़ते जाते हैं । भावार्थ-अवसर्पि-. "णीके १।२।३।४।५/६ कालकी रचना उत्सर्पिणीके ६।५।४।३।२।१ कालकी रचनाके समान है। यहां इतना विशेष जानना कि आयुकायादिककी क्रमसे अवसर्पिणीमें तो हानि होती है और उत्सर्पिणीमें: वृद्धि होती है। देवकुरु और उत्तरकुरुक्षेत्रमें सदाकाल पहले कालकी आदिकी
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy