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________________ [१३७] कंठतालु आदिक स्थानोंसे अक्षररूप होकर नहीं निकलती है, किन्तु सर्वांगसे चनिखरूप उत्पन्न होकर पश्चात् अक्षररूप होती है, इस लिये अनक्षरात्मक है । इस भायात्मक शब्दके समस्त ही भेद परके प्रयोगसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्दके दो भेट हैं एक प्रायोगिक दूसरा स्वाभाविक । जो मेघादिकसे उत्पन्न होय, उसे स्वाभाविक कहते हैं, और जो दूसरेके प्रयोगसे होय उसको प्रायोगिक कहते हैं । प्रायोगिकके चार भेद हैं, १ तत, २ वितत, ३ वन और ४ शौपिर । चर्मके विस्तृत करनेसे मढ़े हुए ढोल, नगाड़ा, मृदंगादिकसे उत्पन्न हुए शब्दको तत कहते हैं, सितार तनरा आदिक तारके बाजोंसे उत्पन्न हुए शब्दको वितत कहते हैं, ताल, घंटा आदिकसे उत्पन्न हुए शब्दको धन कहते हैं, और वांसुरी शेखादिक, फंकसे बजनेवाले बाजोंसे उत्पन्न हुए. शब्दको शौपिर कहते हैं। कितने ही मतावलम्बी शब्दको अमूर्त आकाशका गुण मानते हैं, सो ठीक नहीं है । जो पदार्थ मुर्त्तमान् इन्द्रियसे ग्रहण होता है, वह अमूर्त नहीं किन्तु मूर्त ही है । क्योंकि इन्द्रियोंका विषय अमूर्त पदार्थ नहीं है । इसलिये श्रोत्रइन्द्रियका विषय होनेसे शब्द मूर्त है । (शंका) जो शब्द मूर्त है, तो दूसरे घटपटादिक पदार्थोकी तरह बार बार उसका ग्रहण क्यों नहीं होता ? (समाधान) जैसे बिजलीका एकवार नेत्र इन्द्रियसे ग्रहण होकर चारोंतरफ फैल जानेसे बार बार उसका ग्रहण नहीं होता, इस ही प्रकार शब्दका भी श्रोत्रइन्द्रियद्वारा एकवार ग्रहण होकर चारोंतरफ फैल जानेसे बार बार उसका ग्रहण नहीं होता । (शंका) जो शब्द मृत है, तो नेत्रादिक इन्द्रियोंसे भी उसका ग्रहण क्यों नहीं होता ? (समाधान ) प्रत्येक इन्द्रियका विषय नियमित होनेसे, जैसे रसा
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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