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________________ [१३८]] दिकका ग्रहण घ्राणादिक इन्द्रियोंसे नहीं होता, उस ही प्रकार श्रोत्र इन्द्रियके विषयभूत शब्दका भी नेत्रादिक इन्द्रियोंसे ग्रहण नहीं . होता है । अथवा जो शब्द अमूर्त होता, तो मूर्तिमान् पवनकी. प्रेरणासे श्रोताके कानोंतक नहीं पहुंचता तथा मूर्तिमान् चुने पत्यरकी दीवारोंसे नहीं रुकता। बन्धके भी दो भेद हैं, एक खाभाविक और दूसरा प्रायोगिक । स्वाभाविक (पुरुष प्रयोग अनपेक्षित) बन्ध दो प्रकार है एक सादि और दूसरा अनादि । स्निग्धरूक्ष गुणके निमित्तसे बिजली मेघ. इन्द्रधनुष आदिक स्वाभाविक सादिवन्ध हैं । अनादिखाभाविकबन्ध . धर्म अधर्म और आकाश द्रव्योंमें एक एकके तीन तीन भेद होनेसे नौ प्रकारका है, १ धर्मास्तिकाय बन्ध, २ धर्मास्तिकाय देशबन्ध, ३ धर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, ४ अधर्मास्तिकाय बन्ध, ५ अधर्मास्तिकाय देशबन्ध, ६ अधर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, ७ आकाशास्तिकाय बन्ध, ८ आकाशास्तिकाय देशवन्ध और १. आकाशास्तिकाय प्रदेशबन्ध । जहां सम्पूर्ण धर्मास्तिकायकी विवक्षा है, वहां धर्मास्तिकायबन्ध कहते हैं । आधेको देश और चौथाईको प्रदेश कहते हैं । इस ही प्रकार अधर्म और आकाशमें समझना चाहिये । कालाणु भी समस्त एक दूसरेसे संयोगरूप हो रहे हैं और इस संयोगका कभी वियोग नहीं होता, सो यह भी अनादि संयोगकी अपेक्षासे अनादिवन्ध है। एक जीवके प्रदेशोंके संकोचविस्तार स्वभाव होने पर भी परस्पर वियोग न होनेसे अनादिवन्ध है । नाना जीवोंके भी सामान्य अपे-- क्षासे दूसरे द्रव्योंके साथ अनादिवन्ध है । पुद्गलद्रव्यमें भी महा-- स्कन्वादिके सामान्यकी अपेक्षासे अनादिवन्ध है। इस प्रकार यद्यपि समस्त द्रव्योंमें बन्ध है, तथापि यहां प्रकरणके वशसे पुद्गलका बन्धः
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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