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________________ [ १३२ ] स्थिति में सहकारी है उसको अधर्मद्रव्य कहते हैं, जैसे गमन करते हुए पथिकोंको स्थित होनेमें भूमि । ये धर्म और अधर्म द्रव्य गति-पूर्वक स्थितिपरिणत जीव और पुद्गलकी गति और स्थितिमें उदासीन कारण हैं, प्रेरक कारण नहीं हैं । भावार्थ - जैसे मछली यदि गमन करें, तो जल उसके गमनमें सहकारी हैं । किन्तु ठहरी हुई मछलियोंको जल जबरदस्ती से गमन नहीं कराता है । अथवा गमन: करता हुआ पथिक यदि ठहरै, तो पृथिवी उसके ठहरनेमें सहकारिणी - है किन्तु गमन करते हुओंको जवरदस्तीसे नहीं ठहराती । इस हो प्रकार यदि जीव और पुद्गल स्वयं गमन करें, अथवा गमन करते हुए ठहरें, तो धर्म और अधर्म द्रव्य उनकी गति और स्थिति में - उदासीन सहकारी कारण हैं । किन्तु ठहरे हुए जीव पुद्गलको 'धर्मद्रव्य वलात् (जवरन् ) नहीं चलाता तथा गमन करते हुए जीव पुद्गलको अधर्म द्रव्य जवरन् नहीं ठहराता है । जो जीवादिक. द्रव्योंको अवकाश देनेके योग्य होय, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं । इन छहों द्रव्योंमें आकाशद्रव्य सर्वव्यापी है । शेष पांच द्रव्य सर्वव्यापी नहीं हैं, किन्तु अल्प क्षेत्रमें रहनेवाले हैं । आकाश बहु मध्यभागमें लोक है । भावार्थ - आकाशका कुछ थोड़ासा मध्यका भाग ऐसा है, जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य-पाये जाते हैं, उतने आकाशको लोकाकाश और जो आकाश केवल आकाशरूप है, अर्थात् उसमें जीवादिक द्रव्य नहीं हैं, उस आकाशको अलोकाकाश कहते हैं । भावार्थ - यद्यपि आकाश अखंड और एक द्रव्य है, तथापि जीवादिक अन्य द्रव्योंके सम्बन्धसे जितने आकाशमें जीवादिक पांच द्रव्य हैं, उतने आकाशको लोकाकाश कहते हैं । और शेष आकाशको अलोकाकाश कहते हैं । जो. 1 • w
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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