SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१२०] गणितका स्वरूप सुनकर चकित होते हैं। और कहते हैं. कि, ऐसा गणित हो ही नहीं सकता, परन्तु उनके ऐसे कहनेसे कुछ उस गणितका अभाव नहीं हो जायगा । संसारमें एक दन्तकथा प्रसिद्ध है कि, एक समय एक.राजहंस एक कुएमें गया । कुएके मेंडकने. राजहंसका स्वागत करके उच्चासन देकर प्रसंगवश पूछा कि, क्यों जी! आपका मान सरोबर कितना बड़ा है ? . . राजहंस-भाई मान सरोबर बहुत बड़ा है। . . .:. मेंडक-(एक हाथ लम्बा करके) क्या इतना बड़ा है ? . . रा०-नहीं भाई ! इससे बहुत बड़ा है। . . . में०-( दोनों हाथ लम्बे करके ) तो क्या इतना बड़ा है ? .. रा०-नहीं! नहीं! इससे भी बहुत बड़ा है। . .. में०-(कुएके एक तटसे साम्हनेके दूसरे तट पर उछलकर) लो! क्या इससे भी बड़ा है ? . :. रा०-हां! भाई ! इससे भी बहुत बड़ा है । . .. में0-(झुंझला कर) बस! तुम बड़े झूठे हो! इससे. बड़ा हो : ही नहीं सकता! . राजहंस मेंडकको मूर्ख समझकर चुप हो गया और उड़कर अपने स्थानको चला गया । इस प्रकार कुएके मेंडककी तरह जो महाशय संकीर्णबुद्धिवाले है, उनकी समझमें अलौकिकगणितका स्वरूप प्रवेश नहीं कर सकता । किन्तु जिनकी बुद्धि गौरवयुक्त है, वे अच्छी तरह समझ सकते हैं ।. जघन्य परीतासंख्यातका. स्वरूप समझनेके लिये जो उपाय लिखा जाता है, वह किसीने किया नहीं था, किन्तु बड़े. गणितका, परिमाण समझनेके लिये एक कल्पित उपाय.मात्र है।
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy