SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ४] दक्षिण भारत के जैन वीर २५३. गंगराज को सौंपा। यह काम अत्यन्त दुःशक्य था, क्योंकि तलकाड से चोलों को मार भगाने के लिए वहाँ के सामन्त को जीतने के अतिरिक्त तलकाड के पूर्वीय भाग में स्थित सामन्त दाम या दामोदर और पश्चिमी घाट के सामन्त नरसिंहवर्मा को परास्त करना आवश्यक था। इस समय चोलों के राजा राजेन्द्रदेव द्वितीय थे। गंगराज ने बड़ी वीरता और कुशलता से तलकाड से चोलशक्ति का समूल नाश कर दिया। ११३५ ई० के एक शिलालेख से इस बात की पुष्टि होती है। अंगडि के शिलालेख से यह भी मालूम होता है कि यह विजय १११७ में प्राप्त हुई थी। इसके बाद गंगराज ने पूर्वी तलकाड के सामंत दामोदर को युद्ध में परास्त किया। दामोदर प्राण-रक्षणार्थ जंगलों मे भाग गया। श्रवणबेलगोल में प्राप्त ११७५ के एक शिलालेख से यह बात विदित होती है। अब सिर्फ एक सामंत-पश्चिमी घाट का शासक नरसिंह वर्मा- रह गया। श्रवणबेलगोल के उक्त शिलालेख और अरेगल्लु वस्ती के शिलालेख से पता चलता है कि नरसिंहवर्मा और चोल राजा के दूसरे सामंत हारकर घाट की पहाड़ियों पर भाग गए और इस तरह समूचा 'नाडु' होय्सल राजा के अधीन हो गया। पीछे नरसिंह वर्मा मारा गया। ___ जब गंगराज ने इस प्रकार होय्सल राज्य का विस्तार किया, तो.विष्णुवर्द्धन ने कृतज्ञताप्रकाशन के निमित्त उनसे पुरस्कार माँगने को कहा। गंगराज ने केवल 'गंगवाडि' मांग लिया। जान पड़ता है कि 'गंगवाडि' में गोम्मटदेव तथा अन्य अनेक जिन-मन्दिर थे, जिनकी व्यवस्था ठीक नहीं हो रही थी। यह भी अनुमान होता है कि वहाँ जैनमत का काफी प्रचार हो गया था। अतः गङ्गराज का उद्देश्य वहाँ के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करके जैनमत की उन्नति करना था। यही कारण था कि अन्य दुर्लभ वस्तुओं और धन-धान्य की इच्छा न करके उन्होंने केवल गङ्गवाडि ही मॉगा, जिसे राजा ने सहर्ष उन्हें समर्पित किया। धर्म के प्रति इस अनुराग से गङ्गराज को बहुत यश प्राप्त हुआ। जैन साधुओं ने मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा की। वर्द्धमानाचारी ने १११८ के अपने शिलालेख मे उन्हें चामुण्डराय से सौगुना सौभाग्यशाली बताया। गङ्गराज का पुत्र बोप्प भी अपने पिता के ही मार्ग का अनुगामी था। वह भी वीर सेनानायक और कट्टर जैन था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने 'दोरसमुद्र' मे एक जिनालय बनवाया। कहा जाता है कि ११३४ ई० मे बोप्प ने कई शक्तिशाली शत्रुओं को परास्त किया और अपने बाहुबल से 'कोंग' लोगों को अधीन किया। पणिष पुणिप या पुणिषमय्य के पूर्वज राजमंत्री थे। उनके पिता का नाम पुणिषराज दंडाधीश था और उनकी उपाधि 'सकलशासनवाचकचक्रवर्ती थी। पुणिषमय्य राजा विष्णुवर्द्धन के
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy