________________
( ७० ) (8) वैयाषच्च-दूसरों की सेवा भक्ति को कहते हैं । (१०) सज्झाय-पढ़ना पढ़ाना आदि को कहते हैं। (११) ध्यान-सब तरफ से चित्त वृत्तियों को हटाकर एक
तरफ मन को लगाने को कहते हैं। (१२) कायोत्सर्ग-मन वचन और काया को स्थिर रखना है।
कहलाती है निर्जरा, श्रांशिक कर्म विकाश । तप कर कर गहरे निर्जरा, टूटे यह दुख पाश३ ॥
पाठ ४०–बध तत्त्व जीव. कर्म के एक मय हो जाने को बंध कहते हैं, उसके चार भेद हैं।
(१) प्रकृति बन्ध-फर्मों में आत्मा के गुणों के घातने का स्वभाव. पड़जाना प्रकृति बंध है। जैसे जो कर्म जीव के ज्ञान गुण को ढाँके वह ज्ञाना वरण है । ( मूल कर्मप्रकृति ८ विशेष १४८ तथा १५८ हैं)।
(२) स्थिति बंध-कर्मों में भात्मा के साथ रहने की __ अवधिः (मियाद) पड़ना । अमुक काल तक आत्मा से बंधे रहना।
१) हाय । (२०) प्रहण कर'। ( ३ ) बन्धन ।