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पाठ ३७ – आश्रव तत्त्व |
मिथ्यात्व, योग और कपाय के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का आना श्राश्रव है, उसके नाना अपेक्षा से ५-२० तथा ४२ मेद प्रभेद होते हैं ।
(१) मिथ्यात्व - सत्यदेव, गुरु और धर्म को सत्य मानना तथा यथार्थ तत्व का निश्चय (श्रद्धा) न होना ।
(२) प्रविरति - पांच इन्द्रिय और मन को वश में न रखना और छः काय के जीवों की हिंसा करना श्रविरति हिंसादिक पांच पापों को भी अविरति कहते हैं । (३) प्रमाद - धर्म कार्य में आलस्य करना । (४) कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ करना । (५) शुभयोग - मन वचन काया से पाप कर्म करना । सब दुःखों की जड़ यही, श्राश्रव नामक तत्व | सत्त्व रहित इसने किये, जग के सारे सत्वर ॥
पाठ ३८ - संवर तत्त्व |
योग और कषाय का संयम कर के आते हुए कर्मों का रुकना यही संवर है, इसके ५-२० तथा ५७ भेद प्रभेद हैं।
१ निःसार )
-२ प्राणी ।