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( १४५) निज कर्मथी वळी वस्तुनो, विनाश विनिमय थायछे ॥२६॥ जे आत्म जोडे एकता, आवी नहिं आ देहनी । ते एकता शुं आवशे, स्त्री पुत्र मित्रो साथनी ॥ जो थाय जुदी चामडी, आशरीर थी उतारतां । तो रोम सुंदर देहपर, पामें पछीशुं स्थिरता ॥२७॥ आविश्वनी को वस्तुमां, जो स्नेह बंधन थाय छ । तो जन्म मरणना चक्रमां, चेतन वधु भटकाय छ । मुज मन, वचनने कायनो, संयोग परमां छोडवो। शुभ मोक्षना अभिलापनो आ मार्ग साचो जाणवो ॥२८॥ संसार रूपी सागरे, जे अवनतिमा लई जती । . ते वासनानी जाल प्यारा, तोड संयम जोरथी । वली बाह्यथी छे आत्म जुदो, भेद मोटो जाणवों । तल्लीन थई भगवानमां भवपंथ विकट कापवो ॥२९॥ कर्मो काँ जे आपणे, भुतकालमां जन्मोलई। ते कर्मनुं फल भोगव्या विण, मार्ग एकेछ नहिं ॥ परर्नु करेलु कम जो, परिणाम आपे मुजने ।
तो मुज करेला कमेनो, समजाय नहिं कंई अर्थने ॥३०॥ ___ संसार नां सौ प्राणीओ, फल भोगवे निज कर्मर्नु । . निज कमेना परिपाकनो, भोक्ता नहिं को आपणुं॥
लइ शकेछे अन्यतेने, छोड एं भ्रमणा बुरी । । प्रभुध्यानमां निमग्न था, तुज आत्मनो आश्रय करी ॥३१॥
श्री अमित गति अगम्य प्रभुजी, गुण असीमछे आपना। हृदयथी आदास तो, गुण गाय तुज सामर्थना ॥