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________________ (१४६) - । प्रकटता जो गुण वधा, मुज आत्ममां सद्भावथी। शुभ मोक्षन वरवा पछी, ग्रभुवार क्याथी लागती ॥३२॥ वत्रीस चरण नुं आवन्युं, मंगल सुंदर काव्य। अनुभवतां एक ध्यानधी, मोक्षगति जीव जाय ॥३३॥ सांभरे त्यारे. (गजल) मुकुं पग महेलमां ज्यारे, स्मरण श्मशाननां त्यारे । मुकुं पग पुप्पशय्यामां, चितापण सांभरे त्यारे ॥ १॥ धरूं तन शाल दुशाला, कफन पण सांभरे त्यारे। सुणुं संगित स्वजननु, रुदन पण सांभरे त्यारे ॥२॥ चहुं सुखपालमां ज्यारे, ननामी सांभरे त्यारे ।। जमुं मिष्टान फल ज्यारे, मरणपिंड सांभरे त्यारे ॥३॥ अमूल्य तत्त्व विचार. (हरिगीत) बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मल्यो, तोये अरे ? भवचक्रनो आंटो नहिं एके टब्यो, सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए ल लहो, क्षण क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो ! राची रहो ?॥१॥ लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्यु ते तो कहो ? शु कटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो, वधवापणुं संसारनुं नर दहन हारी जवो, एनो विचार अहोहो; एक पळ तमने हवो, ॥२॥
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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