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( १३५) ए विषयमां बनी अंधहुं, विडंबना पाम्यो घणी ॥ , ते पण प्रकाश्यं आज लावी. लाज आप तणी कने। जाणो सहु तेथी कहुं, कर माफ मारा वांकने ॥११॥ नवकार मंत्र विनाश कीधो, अन्य मंत्रो जाणी ने । , कुशास्त्रनां वाक्यो बड़े, हणी आगमोनी वाणी ने ॥ , कुदेवनी संगत थकी, कर्मों नकामां आचयाँ । मति भ्रमथकी रत्नो गुमावी, काच कटका में ग्रह्या ॥१२॥ आवेल दृष्टि मार्गमां, मुकी महावीर आपने । में मूढ धिये हृदयमां, ध्याया मदनना चापने ॥ नेत्र बाणो ने पयोधर, नाभिने सुंदर कटी ।। शणगार सुंदरीओ तणां, छटकेल थई जोयां अति ॥१३॥ मृगनयणी समनारी तणां, मुखचन्द्र निरखवा वती। मुजमन विषे जे रंग लाग्यो, अल्प पण गुढो अति ।। ते श्रुत रूप समुद्रमां, धोया छतां जातो नथी । तेनुं कहो कारण तमे, बचु केम हु आ पाप थी ॥१४॥ सुंदर नथी आ शरीर के, समुदाय गुण तणो नथी। उत्तम विलास कळा तणो, देदिप्यमान प्रभानथी ॥ प्रभुता नथी तो पण प्रभु, अभिमान थी अक्कड फरूं। " चोपाट चार गति तणी, संसारमा खेल्या करूं ॥१५॥ आयुष्य घटतुं जायतो पण, पाप बुद्धि नव घटे। , आशा जीवननी जायपण, विषयाभिलापा नव घटे॥ औषध विषे करुं यत्न पण, हुं धर्म ने तो नव गणु ।, वनी मोहमां मस्तान हुं, पाया विनाना घर चणु ॥१६॥