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( १३६ ) मन मारुं मायाजाळमां मोहन ? महा मुंझाय छे । चडी चार चोरो हाथमां, चेतन घणो चगदाय छे ॥ ५ ॥ में परभवे के आभवे पण, हित कांइ कयुं नहिं | तेथी करी संसारमा, सुख अल्प पण पाम्यो नहिं ॥ जन्मो अमारा जिनजी, भव पूर्ण करवाने थया । आवेल बाजी हाथमां, अज्ञानथी हारी गया ॥ ६ ॥ अमृत झरे तुज मुखरूपी, चंद्रथी तो पण प्रभु | भींजाय नहि मुज मन अरेरे, ! शुं करुं हुं तो विभु ! ॥ पत्थर थकी पण कठण मारूं, मन खरे क्यांथी द्रवे ? मर्कट समा आ मन थकी हुं तो प्रभु हार्यो हवे ॥ ७ ॥ भमता महा भवसागरे, पाम्यो पसाये आपना । जे ज्ञान दर्शन चरण रूपी, रत्नत्रय दुष्कर घणा ॥ ते पण गया परमादना, वशथी प्रभु कहुं हुं खरुं । कोनी ने किरतार आ, पोकार हुं जइने करूं ? ॥ ८ ॥ ठगवा विभु आविश्वने, वैराग्यना रंगो धर्या । ने धर्म नो उपदेश रंजन, लोकने करवा कर्या ॥ विद्या भण्यो हुं वाद माटे, केटली कथनी कहुं ? | साधु थई ने व्हारथी, दांभीक अंदरथी रहुं ॥ ९ ॥ में मुखने मेलुं कर्पु, दोषो पराया गाइने | ने नेत्रने निंदित कर्या, परनारीमां लपटाई ने ॥
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चित्त ने दोषित कर्यु, चौती नठारुं परतणु । नाथ ! म्हारुं शुं थशे ? चालाक थइचुक्यो घणु ॥ १०॥ करे कालजाने कतल पीडा, कामनी बीहामणी