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( १३८ ) आत्मा नथी परभव नथी, क्ली पुण्य पाप कशुनथी। मिथ्यात्वीनी कटु वाणी में, धरी कान पीधी स्वाद थी॥ रवि समहता ज्ञाने करी, प्रभु आप श्री तो पण अरे । दीवो लइ कुवे पडयो, धिक्कार छ मुजने अरे ॥१७॥ में चित्त थी नहीं देवनी के पात्रनी पुजा चही ! ने श्रावको के साधुओ नो, धर्म पण पाल्यो नहीं ॥ पाम्यो प्रभु नर भव छतां, रणमा रडया जवु थयु । धोबी तथा कुत्ता समुं, मम जीवन सहु एळे गयुं ।।१८॥ हुं कामधेनु कल्पतरु, चिंतामणी ना प्यारमा । खोटा छतां झंख्यो घणुं, बनी लुब्ध आ संसारमा; जे प्रकट सुख देनार त्हारो, धर्म ते सेव्यो नहिं । मुज मूर्ख भावाने निहाली, नाथकर करुणा कई ॥१९॥ में भोग सारा चितव्यापण, रोगसम चिंत्या नाह। आगमन इच्छयुं धन तणुं, पण मृत्युने पीछयु नाहे । नहि चिंतव्युं में नरक, काराग्रह समी छ नारीओ, मधु वींदुनी आशा मही, भयमात्र हुँ भूली गयो ॥२०॥
हुं शुद्ध आचारो बड़े, साधु हृदयमा नव रह्यो, __ करी काम पर उपकारना, यशपण उपार्जन नव कर्यो; . __ वली तीर्थनां उद्धार आदि, कोइ कार्यों नवकयाँ ।
. अरे आ लक्ष चौरासी, तणां फेरा कर्या ॥२१॥
वाणीमां वैराग्य केरो, रंग लाग्यो नहिं अने। दुर्जन तणां वाक्यो महीं, शांति मले क्याथी मने ॥ तरं केम हुं संसार आ, अध्यात्म तो छे नहिं जरी ।